दार्शनिक हीथ्रो ने अपने युवा पुत्र जीनो को अध्यात्म में रुचि रखते हुए देख उसे अच्छी शिक्षा दिलवाने की सोची और अरस्तु के पास दुनियादारी, दार्शनिकता और अध्यात्म सीखने भेज दिया। जीनो वहां तन-मन से गुरु की सेवा करता और उनकी अच्छाइयों को आत्मसात करने का प्रयास करता। निश्चित समय पर उसका शिक्षण पूर्ण हुआ और वह अपने घर लौट आया। पिता बड़ी उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा में था। आते ही उसके हालचाल और वर्षों के रहन-सहन के बारे में पूछा। अंत में असल मुद्दे पर आते हुए उसकी शिक्षा के बारे में पूछा, ‘बेटा, वहां क्या -क्या सीखा।’ पुत्र ने जवाब दिया, ‘पिताजी, आपको धीरे-धीरे पता चल जाएगा।’ पर पिता को चैन कहां। दो-चार बार पूछने पर जब पुत्र ने नहीं बताया तो पिता ने उसको बुरी तरह पीट दिया। इस पर भी पुत्र कुछ न बोला, न अपशब्द कहे। बस, शांत बैठा रहा तो पिता ने ही हाथ जोड़कर कुछ बताने को कहा। इस पर जीनो बोला, ‘पिता जी, यही सब से बड़ा पाठ मैंने वहां सीखा है। हर परिस्थिति में शांत रहना, सहन करना और अपनों से बड़ों पर क्रोध न करना ही सबसे बड़ी शिक्षा है।’ हीथ्रो ने भीगी आंखों से जीनो को गले लगा लिया।
प्रस्तुति : मुकेश कुमार जैन