एक बार कोई व्यापारी घोड़ों की मण्डी में गया जहां उसने भिन्न भिन्न नस्लों के घोड़े देखे। अन्ततः उसे एक घोड़ा पसन्द आ गया और उसके मालिक से मोल-भाव करके व्यापारी ने घोड़ा ख़रीद लिया। घर आकर उसने अपने नौकर को पुकारा और घोड़ा ले जाकर अस्तबल में बांधने का आदेश दिया। नौकर घोड़े को अस्तबल में ले गया, जैसे ही उसने घोड़े की काठी उतारी तो उसके नीचे सोने की मुहरों की थैली मिली। नौकर ख़ुशी से चिल्लाते हुए व्यापारी के पास आया कि आपका तो भाग्य संवर गया, आपको घोड़े के साथ स्वर्ण मुहरें भी मिल गई । लेकिन मैंने सिर्फ़ घोड़ा ख़रीदा है, मुहरें नहीं। व्यापारी ने शान्त भाव से उत्तर दिया। घोड़े वाले को क्या पता कि मुहरें आप के पास आई हैं। नौकर ने अपनी अक़्लमन्दी का परिचय देते हुए कहा। मुझे तो पता है। यह कह कर व्यापारी ने नौकर के हाथ से थैली ली और वापस करने चल दिया। घोड़े के मालिक ने वह थैली देखी तो वह प्रसन्न भी हुआ और चकित भी। मैं तो थैली रख कर भूल गया था इसलिए मैं इनाम स्वरूप तुम्हें दो मोहरें देता हूं। व्यापारी ने मोहरें लेने से इन्कार करते हुए कहा कि मैंने दो मोहरें पहले ही अपने पास रख ली हैं। घोड़े वाला परेशान हो गया उसने मोहरें गिनी तो पूरी थीं। बताओ तुमने कौन-सी दो मोहरें रखी हैं उसने हैरान होते हुए पूछा। एक मेरा स्वाभिमान, दूसरी मेरी सत्यवादिता। मैं ये दो मोहरें कभी खोना नहीं चाहता। यह कह कर व्यापारी वहां से चल दिया।
प्रस्तुति : नीरोत्तमा शर्मा