आप भगवान को नहीं मानते तो अपने आप को ही सब कुछ मानते होंगे। आपको लगता होगा कि बाहरी सत्ता कोई नहीं हैं, जो कुछ हैं आप ही हैं। यदि आप यह समझते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह सब प्रकृति के नियमों के अधीन हो रहा है, ईश्वर-भगवान नाम की कोई चीज़ इसको नहीं चला रही है, यह अपने आन्तरिक नियमों से ही परिचालित है, तो भी आप स्वयं को धोखा दे रहे हैं क्योंकि यह प्रकृति, जिसके आन्तरिक नियमों द्वारा परिचालन को आप स्वीकार कर रहे हैं, इसे भी तो किसी ने बनाया होगा।
एक क्षण के लिए मान भी लें कि प्रकृति ही अन्तिम सत्य है, किसी ने इसे नहीं बनाया, यह स्वयंभू है, अपने से ही बनी है, अपने ही नियमों से परिचालित है, तो भी आप अपने अतिरिक्त किसी दूसरी बड़ी सत्ता की विद्यमानता को स्वीकार कर लेते हैं। आपके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृति द्वारा परिचालित है। इस सृष्टि तंत्र में आपकी हैसियत क्या है? क्या प्रकृति की किसी गति को, किसी नियम को, किसी स्थिति को बनाने, चलाने, रोकने, टालने या बदलने की कोई शक्ति है आपके पास? नहीं है ना। आप तो एक बहुत बड़ी मशीन का बहुत तुच्छ-सा पुर्जा हैं।
अब आप इस सृष्टि तंत्र को मशीन मान लें तो इसे चलाने वाली शक्ति को मशीन से बड़ी सत्ता मानना ही पड़ेगा क्योंकि उसके बिना मशीन चलने में असमर्थ-अक्षम है। आप कह सकते हैं कि मशीन बिजली से चलती है। आपने अधूरा सत्य पकड़ लिया। बिजली भी तो किसी अन्य शक्ति के अधीन है। जहां पर पानी के गिरने से बिजली उत्पन्न हो रही है, मान लीजिए, वहां पर पानी ही नहीं रहता। बिजली कहां से पैदा होगी? स्पष्ट है कि बिजली स्वयं में अन्तिम सत्य नहीं है, पानी इसके अस्तित्व का मूल है। पानी क्या आप पैदा कर सकते हैं?
माना मशीन आपने बनाई, मशीन को चलाने वाली बिजली आपने बनाई, लेकिन बिजली को जन्म देने वाले पानी को आपने नहीं बनाया। तो फिर पानी को किसने बनाया? इसका मतलब है कि आपका परिवर्तित सत्य भी अन्तिम सत्य नहीं है। अन्तिम सत्य उससे भी परे कहीं अनदेखा-अनजाना पड़ा है। हम उस अन्तिम सत्य को ब्रह्म कहते हैं और यह मानते हैं कि ब्रह्म एक ऐसी अपार-अनन्त शक्ति है, जिसका न कोई रूप है, न आकार; जिसका न आदि है, न अन्त।
हम कहते हैं ब्रह्म स्वयंभू है, उसे किसी ने नहीं बनाया, अपने से बना है। आप इसे सीधे से स्वीकार नहीं करना चाहते, न करें। खोजें उस सत्ता को, जिसने ब्रह्म को बनाया होगा। खोजें उस सत्ता को, जो ब्रह्म की सत्ता से ऊपर हो। जब तक एक सत्ता से बड़ी सत्ता आपको मिलती जाएगी, आप उसका निराकरण करके बड़ी सत्ता को अन्तिम सत्य मानते चले जाएंगे, लेकिन जहां पहुंचकर आपके तमाम तर्क समाप्त हो जाएंगे, आपकी बुद्धि की सारी दौड़ ख़त्म हो जाएगी, वहां जाकर आप हार जाएंगे।