अशोक ‘प्रवृद्ध’
व्यापक तैयारियों के मध्य मकर संक्रांति पर प्रथम स्नान के साथ ही हरिद्वार महाकुंभ का शुभारंभ हो जाने के कारण उत्तराखंड का प्रसिद्ध तीर्थस्थल हरिद्वार चर्चा में है। हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में प्रत्येक 12 वर्षों पर बारी-बारी से आयोजित होने वाला कुंभ इस वर्ष हरिद्वार में कतिपय ग्रह-गोचर के कारण 11 वर्ष पर ही आयोजित किया जा रहा है। कोविड-19 के कारण इसे साढ़े 3 महीनों के बजाय 48 दिनों के लिए मौनी अमावस्या 11 मार्च से चैत्र पूर्णिमा 27 अप्रैल 2021 तक आयोजित किया जा रहा है।
ज्योतिषीय गणनानुसार ग्रहों के राजा बृहस्पति कुंभ राशि में हर 12 वर्ष बाद प्रवेश करते हैं, परंतु प्रवेश की गति में हर 12 वर्ष में कुछ अंतर आता है। यह अंतर बढ़ते-बढ़ते 7 कुंभ बीत जाने पर एक वर्ष कम हो जाता है। इस कारण आठवां कुंभ 11वें वर्ष में पड़ता है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय सभ्यता-संस्कृति के उद्भव एवं विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले हरिद्वार, प्रयाग, काशी, गया आदि गंगा तट पर अवस्थित स्थल सिर्फ तीर्थ ही नहीं वरन् प्रभावशाली विद्या-केंद्र भी रहे हैं। गंगा के उपकूलों पर ही धर्म, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य एवं कला-कौशलों की श्रीवृद्धि हुई। उत्तर भारतवर्ष के अधिकांश व्यापारिक नगर एवं औद्योगिक केंद्र गंगा-तट पर ही अवस्थित हैं। भारतीय सभ्यता-संस्कृति को निरंतर प्रवाहमान बनाये रखने के निमित्त हिन्दुओं के संग्रह केंद्र अर्थात जमावड़े के रूप में निर्मित 4 कुंभ स्थलों में से 2 स्थल प्रयाग और हरिद्वार गंगा के किनारे हैं। उत्तराखंड प्रांत के हरिद्वार जिले का पवित्र नगर तथा प्रमुख तीर्थस्थल प्राचीन नगरी हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। हरिद्वार का अर्थ है- हरि अर्थात ईश्वर का द्वार। समुद्र तल से 3139 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित हिमनद गोमुख से निकलकर 253 किलोमीटर की यात्रा कर गंगा नदी हरिद्वार के मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बहुरूपदर्शन का अक्षरशः प्रतिबिम्ब प्राकृतिक दृष्टि से स्वर्ग समान सुंदर हरिद्वार उत्तराखंड के चार धाम- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है। यही कारण है कि शैव और वैष्णव पन्थ के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं। हर अर्थात शिव-केदारनाथ और हरि अर्थात विष्णु-बद्रीनाथ तक जाने का द्वार। हरिद्वार का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं है, फिर भी स्कन्दपुराण, पद्मपुराण एवं मत्स्यपुराण में हरिद्वार का उल्लेख है। हरिद्वार नगर के रूप में भी प्राचीन नहीं, लेकिन तीर्थ के रूप में बहुत प्राचीन है, और इसका हरिद्वार नाम भी पौराणिक ग्रंथों की रचना के बाद अर्थात उत्तर पौराणिक काल में ही प्रचलित हुआ है। महाभारत में इसे केवल गंगाद्वार नाम से अभिहित किया गया है। महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद भीष्म-पुलस्त्य संवाद के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के वर्णन में गंगाद्वार अर्थात हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का उल्लेख करते हैं। वे गंगाद्वार को स्वर्गद्वार के समान बताते हुए कहते हैं कि वहां एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करने वाला मनुष्य पुण्डरीक यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहां एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है। यही बात किंचित पाठभेद के साथ पद्मपुराण आदिखण्ड में भी कही गई है। इससे स्पष्ट है कि अत्यंत प्राचीन काल से हरिद्वार में पांच तीर्थों की विशेष महिमा कही जाती रही है। महाभारत के अनुशासनपर्व और पद्मपुराण के उत्तराखंड में अंकित है- गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते। तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत।।
अर्थात- गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है। इनमें से हरिद्वार (मुख्य) के दक्षिण में कनखल तीर्थ विद्यमान है, पश्चिम दिशा में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ है, पूर्व में नीलेश्वर महादेव तथा नील पर्वत पर ही सुप्रसिद्ध चण्डीदेवी, अंजनादेवी आदि के मन्दिर हैं। पश्चिमोत्तर दिशा में सप्तगंग प्रदेश या सप्त सरोवर (सप्तर्षि आश्रम) है। इन स्थलों के अतिरिक्त भी हरिद्वार में अनेक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं। पुराणों में इसे गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक के नाम से संज्ञायित किया गया है। प्राचीन काल में कपिलमुनि के नाम पर इसे कपिला भी कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि यहां कपिल मुनि का तपोवन था। पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र और श्रीराम के पूर्वज भगीरथ गंगा को वर्षों की तपस्या के पश्चात अपने साठ हजार पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर और फिर हरिद्वार तक लाये। कालिदास ने मेघदूत में कनखल का उल्लेख किया है, लेकिन हरिद्वार का नहीं। इतिहासज्ञ इससे मिलते-जुलते अथवा निकटस्थ नामों का उल्लेख मायापुर, गंगा-द्वार आदि के रूप में करते हैं। आमेर के राजा सवाई मानसिंह ने सर्वप्रथम यहां एक छोटा सा घाट, शिवालिक की पहाड़ी को काटकर उन्हीं पत्थरों से बनाया था तथा घाट का नाम ब्रह्मकुंड रखा था। इसके बाद यह तीर्थ बसता तथा प्रसिद्ध होता चला गया। परन्तु गंगाद्वार नाम अत्यंत प्राचीन प्रतीत होता है, क्योंकि यहीं पर गंगा सर्वप्रथम मैदानों में उतरी है तथा यहां से ही हिमालय, जो हरि का देश कहलाता है, प्रारम्भ होता है। यही कारण है कि इस स्थान का नाम हरिद्वार प्रसिद्ध हुआ है। पुराणादि ग्रंथों के अनुसार कनखल में दक्ष के यज्ञ में सतीदाह हुआ था तथा दक्ष का यज्ञ शिव ने विध्वंस कर दिया था। प्राचीन काल में मायापुरी एक संपन्न नगरी थी। पुराणों के अनुसार यहीं पर वेन राजा की गढ़ी थी। यह गढ़ी हरि की पौड़ी के पास कुश्यवर्त्त घाट के पास थी। जहां पर मेष की संक्रांति पर पिंडदान होता है। स्कन्दपुराण में इस स्थल का माहात्म्य अंकित है। कूर्मपुराण में कनखल की महिमा गाई
गयी है।
कुंभ इस बार 11 वर्षों बाद हरिद्वार में
प्रत्येक 6 वर्ष में अर्धकुंभ और 12 वर्ष में महाकुंभ का आयोजन किये जाने की परिपाटी है। लेकिन 82 वर्षों बाद इस बार हरिद्वार महाकुंभ 12 के बजाय 11 वर्ष बाद आया है। इससे पहले 1938 में यह कुंभ 11 वर्ष बाद पड़ा था। कोरोना के कारण कुंभ की अवधि भी महज 48 दिन रहेगी।
हर की पौड़ी का महत्व
मान्यता है कि हरिद्वार का वह स्थान जहां अमृत की बूंदें गिरी थीं, वह हर की पौड़ी ही है, जहां पर वर्तमान में ब्रह्मकुंड की अवस्थिति है। यही कारण है कि हर की पौड़ी हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है। पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण प्रसंग में हरिद्वार की महिमा गान व प्रशंसा के साथ ही उसके सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने की घोषणा करते हुए कहा गया है कि भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं, वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है।