डॉ. मोनिका शर्मा
आस्था के सही अर्थ समझते हुए मन, वचन और कर्म से अध्यात्म के मार्ग पर चलने की सोच इंसान को हर तरह की नकारात्मक वृत्ति से बचाती है। दोषपूर्ण विचारों से दूर रखती है। मन को डिगाने और मस्तिष्क को बहकाने वाली आदतों और अनुमानों के मौजूदा समय में यह एक रक्षा कवच के समान है। जो जीवनशैली में बदलाव करने से लेकर भावनाओं को दिशा देने तक, हर तरह के भटकाव से बचाता है। कहते भी हैं कि जो सत्कर्म करता है बुरे कर्मों से दूर ही रहता है। ऐसे में अच्छे कार्यों और विचारों की ओर प्रवृत्त कर आस्था रूपी विश्वास की डोर हमारे पूर्ण-सम्पूर्ण अस्तित्व को बिखरने से बचाती है।
सदzwj;्गुणों से सींचित मन-करुणा, संवेदना, प्रेम, आत्मचिंतन और आशाओं से भरा मन, मानवीय व्यवहार के सबसे उज्ज्वल पक्ष हैं। इनकी बुनियाद पर ही सकारात्मक सोच और सदाचार के भावों का भवन खड़ा होता है। ऐसे गुण न केवल स्वयं को थामते हैं बल्कि किसी दूसरे इंसान की भी मनःस्थिति समझने और परिस्थितिजन्य परेशानियों में सम्बल देने का आधार बन सकते हैं। ईश्वरीय आस्था हमारे अन्तर्मन को ऐसे ही सदzwj;्गुणों से सींचती है। विचार की दिशाहीनता पर लगाम लगाती है। जिससे मानवीय भावों का स्पंदन सार्थक गतिशीलता लिए होता है। तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’ यानी दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं, दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं। आज जब मन, वचन और व्यवहार में कटुता जगह बनाती जा रही है, धार्मिक आस्था का यही भाव सबसे ज्यादा जरूरी है। इसीलिए सदैव बेहतर समाज के निर्माण हेतु अच्छे गुणों एवं मूल्यों को महत्व दिया गया है। सदzwj;्गुणों को अनमोल पूंजी माना गया है। ऐसा धन जिसका कभी क्षय नहीं होता। जिसकी चोरी नहीं हो सकती। महान दार्शनिक सुकरात के मुताबिक ‘सदzwj;्गुण ही ज्ञान हैं।’ यानी अच्छे गुण ऐसा ज्ञान धन हैं, जो मन-जीवन के हर पक्ष को संवारते हैं। ऐसे में हर तरफ बढ़ती नकारात्मक सोच और हिंसक वृत्तियों के इस दौर में सदzwj;्गुणों को सींचने वाला आस्था के भाव बेहद अहम है।
आडम्बर नहीं आस्था का भाव
आज हमारे सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में बिखराव की सबसे बड़ी वजह नकारात्मक वृत्तियां ही हैं। आए दिन किसी परिचित-अपरिचित से जुड़ी कोई घटना, विचार या बर्ताव हमें चकित भी करता और चिंतित भी। कैसे कोई यूं हिंसक व्यवहार कर सकता है? कैसे कोई ऐसी अभद्र भाषा बोल सकता है? कैसे किसी के मन में इतनी कटुता हो सकती है? किस तरह यूं छल कपट का पीड़ादायी खेल खेला जा सकता है? जैसे अनगिनत प्रश्न हर घटना के बाद समाज, परिवार और परिवेश में तैरने लगते हैं। ध्यान रहे कि इनका उत्तर सिर्फ एक ही है, नकारात्मक वृत्तियां। ऐसी निषेधात्मक आदतें जो किसी की दिनचर्या में शामिल होकर पल-पल दिशाहीनता को ही खाद-पानी देती रहती हैं। इनसे बचने या मुक्त होने के लिए आध्यात्मिक जीवन से जुड़ना, आस्था का आधार तलाशना आवश्यक है। हमारे यहां ज्ञान, कर्म और आराधना अध्यात्म के तीन मार्ग माने गए हैं। तीनों ही हमारे विचार और व्यवहार के परिष्करण से जुड़े हैं। सदा से ही मनुष्य के विचार और व्यवहार की शुद्धि को समग्र समाज की उन्नति से जोड़कर देखा जाता रहा है। ऐसे में बेहतरी का यह भाव आडम्बर न होकर आस्था के पावन भाव में परिलक्षित हो तो समाज से हर बुराई का अंत किया जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन को परिष्कृत किया जा सकता है। संत रविदास की उक्ति ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ का उदाहरण भी इसीलिए दिया जाता है कि मन के मोर्चे पर स्वयं को साध लिया तो आस्था के भाव का कोई दिखावा नहीं करना पड़ता। दिखावे से दूर यूं सही अर्थों में समझे गए ईश्वरीय विश्वास के मायने सकारात्मक चिंतन और सदाचार को बल देते हैं।
कर्म प्रधान सोच का पोषण
नकारात्मक वृत्तियों से बचे रहना हर पल कर्म में रत रहने के भाव को पोषित करता है। कर्मशील रहने का यह पाठ आस्था का सबसे सुंदर पहलू है। कर्म हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों तय करते हैं। कर्म के बल पर भाग्य भी बदला जा सकता है। हमारी ईश्वरीय आस्था भी सिखाती है कि कर्म की महत्ता सर्वोपरि है। सब कुछ ईश्वर पर छोड़ने के बजाय कर्मशील बनने का पाठ हमारे धर्म ग्रंथों की प्रमुख सीख है। भाग्य की बजाय कर्म करने पर विश्वास करने सीख देने वाले भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन आज सबसे अधिक प्रासंगिक है। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन को कर्म के मार्ग पर चलने की सीख दी थी। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का संदेश देकर अर्जुन को अपना कर्म करने और फल की आकांक्षा से विमुख रहने का पाठ पढ़ाया था। सही मायने में ईश्वरीय आस्था का भाव भी कर्म प्रधान सोच का ही पोषण करता है। मानवीय मनोविज्ञान के आधार पर समझने की कोशिश की जाए तो भी यही स्पष्ट होता है कि अकर्मण्यता जीवन को दिशाहीन करने वाला बड़ा कारक है। मन-जीवन को घेरने वाली अधिकतर नकारात्मक वृत्तियों की वजह भी अकर्मण्यता ही होती है। कर्मशील मनुष्य का श्रमशील जीवन एक सार्थक व्यस्तता की सौगात देता है।