सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ
भारत के बुद्धों, संतों, तीर्थंकरों की मौलिक देन यह है कि उन सबने जीवन को आंतरिक सुख यानी आनंद की खोज बताया है। चूंकि धर्म बुनियादी रूप से जीवन से जुड़ा तत्व है, इसलिए धर्म आनंद की ही खोज है।
पश्चिम की मौलिक देन यह है कि जीवन बाहरी सुख की खोज है। पश्चिम कहता है कि सुख बाहर से मिलता है। पूरब जानता है, सुख बाहर से मिल नहीं सकता, क्योंकि सुख का स्रोत भीतर है। आनंद का स्रोत भीतर ही है। पश्चिम की धारणा है- पहले बाहरी सुख मिलेगा, फिर आनंद मिलेगा। भारत की खोज है- पहले आनंद मिलेगा, तब बाहरी सुख मिलेगा।
पश्चिम की खोज उपयोगितावादी दृष्टि पर आधारित है यानी कोई चीज कितनी उपयोगी है। पश्चिम किसी व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से करता है कि उसका उपयोग कितना है। वहां जब तक आप धन अर्जन में सक्षम हैं, तभी तक आपका मूल्य है। भारत की दृष्टि उपयोगितावादी नहीं है। भारत की समझ कहती है कि हमें आनंद ही सुख तक ले जाता है। इसलिए, हम आज भी बुजुर्गों को मूल्य देते हैं। भारत में आज भी कहीं न कहीं आनंदवादी दृष्टि बची है।
इसे एक उदाहरण से समझें। पश्चिमी मनस्विद स्टीफन आर. कावे ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि लोगों की दृष्टि ‘आउटसाइड इन’ की है, अर्थात जो भी मिलेगा, पहले बाहर से मिलेगा, फिर भीतर आएगा। उन्होंने भारतीय मनस्विदों की इस खोज को ठीक ठहराया है कि पहले भीतर बदलेगा, फिर बाहर बदलेगा। पश्चिम कहता है कि परिस्थितियां बदल जाएं तो मनःस्थिति बदल जाएगी। पूरब की मनीषा कहती है- अगर मनःस्थिति बदले तो परिस्थितियां बदल जाएंगी। पहले अंधेरा दूर करो, फिर प्रकाश आएगा- ऐसा पश्चिम का सोचना है। भारत कहता है, प्रकाश लाओ, तो अंधेरा स्वतः भाग जाएगा। पूरब और पश्चिम की धारणा का यह मौलिक भेद है।
पतंजलि का जो अष्टांगयोग है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, शुरुआत तो उसकी भी यम यानी परिस्थितियों की शुद्धि से ही होती है। फिर आता है नियम यानी मनःस्थिति का शुद्धीकरण। इसके बाद के छह चरण भीतरी शुद्धि के हैं।
पांचवें सिख गुरु अर्जुनदेवजी कहते हैं- आनंद भया सुख पाइया, मिलि गुरु गोविन्द। यानी, पहले आनंद मिला, फिर उसके पीछे सुख आया। और, आनंद तब आता है जब कोई गुरु और गोविन्द से मिलता है। गुरु और गोविन्द से मिलकर ही कोई अपनी भीतरी संपदा को जान सकता है। लेकिन पश्चिम इससे राज़ी नहीं है। वह कहता है- पहले मकान बनाओ, कार खरीदो, दूसरी सुख-सुविधाएं इकट्ठा करो, फिर आनंद होगा। पश्चिम की दृष्टि सिकंदरी है, पूरब की कलंदरी। कलंदर सुख की खोज बाहर नहीं, अंदर करता है। भारत की दृष्टि आनंदवादी है।
उपयोगितावादी दृष्टि व्यक्ति को आनंद में नहीं ले जा सकती। यह असम्यक दृष्टि है। सम्यक दृष्टि का अर्थ है- आनंद तुम्हारा साध्य है, उत्सव तुम्हारा साध्य है। उपयोगिता और सफलता को साध्य समझना असम्यक दृष्टि है। असली बात है- आनंदित कैसे हों! सम्यक दृष्टि का साध्य यही हो सकता है। ध्यान रहे कि आनंद का भौतिकता से विरोध नहीं है। इस अंतर को ठीक से समझ लें। भौतिकता साधन है आनंद का, यह सम्यक दृष्टि है। लेकिन भौतिकता, उपयोगिता और कामयाबी ही यदि साध्य हो जाए, तो यह असम्यक दृष्टि है।
नाच-गान, रास और लीला में श्रीकृष्ण का इतना समय इसलिए व्यतीत होता है कि आनंद ही हमारा पथ है। चंडीदास भी कहते हैं- आनंद आमार गोत्र, उत्सव आमार जाति। आनंद हमारा बीज है, उत्सव उसका फूल है। पूरब के सभी संतों ने आनंद को ही साध्य माना है। आनंद की सम्यक दृष्टि ही धार्मिकता का पहला सोपान है। धन और शक्ति का उपयोग है, लेकिन वे साध्य नहीं हैं। इसलिए, हमारी दृष्टि आनंदवादी होनी चाहिए।
महत्वाकांक्षा भड़काने वाले पश्चिमी साहित्य के प्रभाव में हम भी अपने बच्चों से कहना शुरू कर देते हैं- कामयाबी चाहिए, सफलता चाहिए। लेकिन सफलता का हमारा पैमाना क्या है? हम समझते हैं कि बच्चा अच्छा धन कमाने लगे, अच्छी पोजीशन पर पहुंच जाए तो वह कामयाब है। वास्तव में, यह छद्म कामयाबी है। धीरे-धीरे पश्चिम भी इस बात पर राज़ी होता जा रहा है कि परिस्थिति बदलने से बहुत कुछ नहीं बदलता, केवल थोड़ा-सा बदलाव होता है।
असली बात है, अंतस के बदलने की। वही असली कामयाबी है। रामरतन धन को जानना, उस परमसत्य को पाना है असली सफलता। जिस दिन व्यक्ति को यह कामयाबी मिलती है, उसी दिन वह असली आनंद को जानता है। भूटान जैसा देश भी आनंद को अपनी कामयाबी की कसौटी मानता है। यही आपके जीवन की भी कसौटी होनी चाहिए।
(लेखक ओशोधारा, मुरथल के संस्थापक हैं)