पचास प्रतिशत की सीमा हटाने से इनकार
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में महाराष्ट्र सरकार के उस कानून को असंवैधानिक करार दे दिया, जो राज्य के प्रभावशाली मराठा समुदाय को शैक्षिक व रोजगार आरक्षण देने का वादा करता है। दरअसल, अदालत का मानना था कि राज्य में ऐसी कोई असामान्य परिस्थिति नहीं है, जिसके चलते मराठा समुदाय को सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा मानते हुए आरक्षण का लाभ दिया जाये। जिसके चलते शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित अधिकतम पचास फीसदी की आरक्षण सीमा का अतिक्रमण किया जाये। उल्लेखनीय है कि पिछली देवेंद्र फडणवीस सरकार ने कानून बनाकर मराठा समुदाय को सोलह फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया था। यह कानून शीर्ष अदालत द्वारा वर्ष 1992 में निर्धारित अधिकतम पचास फीसदी की सीमा रेखा का उल्लंघन करता है। वैसे इस कानून को बंबई हाईकोर्ट ने वैधता प्रदान कर दी थी। दरअसल, विगत में देश के कई राज्यों में प्रभावशाली जातीय समुदाय द्वारा बदले आर्थिक परिदृश्य में पिछड़ने की बात करते हुए शैक्षिक क्षेत्र व रोजगार में आरक्षण की मांग की जाती रही है, जिसका कतिपय राजनीतिक दल वोट हासिल करने के लिये समर्थन करते भी रहे हैं। इन चर्चित आंदोलन में हरियाणा में जाट आंदोलन, राजस्थान में गुर्जर और गुजरात में पटेलों का आंदोलन भी शामिल रहा है। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय जजों की संवैधानिक बेंच ने स्पष्ट कर दिया है कि आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा अब नहीं टूट सकती। जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पांच जजों की इस बेंच में जस्टिस एल. नागेश्वर राव, एस. अब्दुल नजीर, हेमंत गुप्ता और एस. रविंद्र भट्ट शामिल थे। जस्टिस भूषण का मानना था कि इंदिरा साहनी फैसले की समीक्षा की कोई वजह नजर नहीं आती। उस फैसले का पालन किया जाना चाहिए। बहरहाल, अदालत आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत रखने पर ही सहमत रही, जिसको कई राज्य खत्म करना चाह रहे हैं।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट मानना रहा है कि विशेष परिस्थितियों के बिना ही निर्धारित आरक्षण सीमा को हटाना संविधान का उल्लंघन होगा। विडंबना यही है कि राज्यों के राजनीतिक दल इस आरक्षण के समर्थन में खुलकर सामने आ जाते हैं। इस कानून के समर्थन में महाराष्ट्र के विभिन्न जनपदों में बड़े आंदोलन हुए थे। कमोबेश तमाम राजनीतिक दल इस आरक्षण को लागू करने के पक्ष में रहे हैं क्योंकि राजनीतिक रूप से मराठा समुदाय महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा दखल रखता रहा है। यही वजह है कि शीर्ष अदालत में इस मामले में सुनवाई के बीच केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाये गये इस कानून का समर्थन किया। इसी तरह कई अन्य राज्यों की सरकारें भी ऐसे आरक्षण के पक्ष में विचार व्यक्त करती रही हैं। दरअसल, कई राज्यों में ये प्रभावशाली जातीय समूह राज्य सरकारों पर आरक्षण लागू करने के लिये दबाव बनाते रहे हैं। इस मुद्दे को विपक्षी दल तुरंत लपक लेते हैं, जिसके चलते राज्य सरकारों के लिये कानून-व्यवस्था का प्रश्न भी पैदा हो जाता है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में यह सवाल तो पैदा होता है कि क्या सुशासन के अन्य तरीकों से इस पिछड़ेपन को दूर नहीं किया जा सकता? क्या आरक्षण देना ही अंतिम विकल्प है? क्या इस आरक्षण से अन्य सामान्य लोगों के साथ अन्याय नहीं होगा? क्या इससे समाज में स्वतंत्र स्पर्धा पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। दरअसल, वक्त की मांग है कि उन कारणों की पड़ताल की जाये, जिससे कोई समाज प्रगति की दौड़ में पीछे छूट जाता है। ऐसे वक्त में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है, क्या रोजगार के पर्याप्त अवसर आरक्षण के जरिये हासिल किये जा सकते हैं, क्या यह प्रतिभा के साथ नैसर्गिक न्याय का समर्थन करता है? वैसे यह हमारे सत्ताधीशों की विफलता भी है कि आजादी के सात दशक के बाद हमारे समाज का एक वर्ग क्यों प्रगति की दौड़ में पिछड़ गया है।