पंजाब-हरियाणा सीमा पर स्थित शंभू रेलवे स्टेशन में जारी किसानों के आंदोलन के चलते रेल यात्रियों को बिना किसी अपराध के सजा भुगतनी पड़ रही है। वहीं दूसरी ओर रेलवे को भी भारी घाटा उठाना पड़ रहा है। पिछले एक सप्ताह से रोज 40 से 50 ट्रेनें रद्द की जा रही हैं। यात्रियों को ज्यादा समय व पैसा लगाकर अपने गंतव्य स्थानों तक जाना पड़ रहा है। रेलवे के पार्सल बुकिंग केंद्र में भी पचास फीसदी की कमी आने की बात बतायी जा रही है। इसमें दो राय नहीं कि किसानों की न्यायसंगत मांगों को पूरा किया ही जाना चाहिए। वे लंबे समय से आंदोलनरत रहे हैं। ऐसे में सत्ताधीशों का भी नैतिक दायित्व बनता था कि वे किसानों से बातचीत की टेबल पर बैठकर बात करते। जिससे सड़क व रेल यातायात बाधित भी नहीं होता। वैसे किसानों को भी आंदोलन करने से पहले देशकाल-परिस्थितियों का आकलन कर लेना चाहिए था। देश इस समय चुनावी मूड में है। कोई भी सरकार किसानों से जुड़े किसी मुद्दे पर बड़ा फैसला लेने में सक्षम नहीं है। किसानों को नये जनादेश का इंतजार करके किसान आंदोलन को दिशा देनी चाहिए थी। किसानों को देश व समाज के अहसासों का भी ध्यान रखना चाहिए। कल्पना कीजिए कि रेल यात्रा करने वाले लोगों को जब अचानक सूचना मिलती है कि उनकी ट्रेन रद्द हो गई है तो उन पर क्या बीतती होगी? लोग घंटों रेलवे टिकट बुकिंग केंद्रों पर खड़े होकर अपने लिये टिकट आरक्षित करवाते हैं। कई महीने पहले एडवांस में रिजर्वेशन करवाना पड़ता है। फिर एक दिन यात्रा से ठीक पहले पता चलता है कि उनकी ट्रेन रद्द हो गई है। आंदोलनकारियों को सोचना चाहिए कि उस ट्रेन से कोई मरीज कहीं दूर उपचार हेतु जा रहा होगा। कहीं कोई बेरोजगार नौकरी के लिये साक्षात्कार देने जा रहा होगा। हो सकता है कि सही समय पर न पहुंच पाने के कारण कई छात्र परीक्षा या नौकरी पाने से वंचित हो गए होंगे।
समय-समय पर देश की शीर्ष अदालत के मार्गदर्शक फैसले आते रहे हैं कि हमें किसी आंदोलन के नाम पर नागरिक जीवन को बंधक नहीं बनाना चाहिए। यदि आंदोलनकारियों के अधिकार हैं तो आम नागरिकों के भी अपने अधिकार हैं। एक पुरानी कहावत है कि जहां से दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है, वहां पर पहले व्यक्ति की आजादी खत्म हो जाती है। यानी हमारी किसी भी तरह की आजादी का मतलब किसी की आजादी का अतिक्रमण करना नहीं हो सकता। वैसे भी एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर भी हमें सोचना चाहिए कि यातायात के साधनों, वह चाहे बस हो या ट्रेन, के परिचालन में बाधा डालना एक अपराध जैसा है। ट्रेन को थामना देश के विकास के पहिये थामने जैसा ही है। हमारे कारोबार, जीवन व्यवहार, तीर्थाटन तथा सेना के आवागमन को गति देने वाली ट्रेनों को रोकना निस्संदेह, दुर्भाग्यपूर्ण ही है। निश्चित रूप से इसमें हमारे देश के नीति-नियंताओं को भी सोचना चाहिए कि आखिर क्यों किसानों को अपनी मांगें मनवाने के लिये रेल रोकने जैसे कदम उठाने पड़ रहे हैं। कहीं न कहीं हमारे सत्ताधीशों के व्यवहार में व्याप्त दंभ और किसानों की मांगों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव भी इस तरह के आंदोलनों के लिये ईंधन का काम करता है। ऐसे हालात में किसानों को अभी अपने आंदोलनों के तौर-तरीकों को बदलना पड़ेगा। उन्हें हक है कि वे अपनी मांगों के समर्थन में आंदोलन करें। लेकिन उन्हें यह हक कदापि नहीं दिया जा सकता है कि वे देश के रेल तंत्र को ठप कर दें। यह देश की लोकतांत्रिक सहिष्णुता का अपमान करने जैसा भी है। अब समय आ गया है कि सभी लोग सुनिश्चित करें कि किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन से देश के सड़क व रेल परिवहन में कोई बाधा न उत्पन्न हो। हमें अपने निहित स्वार्थों की अनदेखी करके राष्ट्रीय हितों व सरोकारों को प्राथमिकता देनी चाहिए।