यह तर्क से परे है कि मोहभंग का सबब बन रही खेती को लाभदायक बनाने के लिए सरकार आनन-फानन में संसद में बिल पारित करे और किसान उसके विरोध में सड़कों पर उतर आयें। इन बिलों के खिलाफ देश के किसान संगठनों ने शुक्रवार को देशव्यापी चक्का जाम का आह्वान किया था। जिन बिलों को लेकर सरकार का दावा था कि वे किसानों की आय बढ़ाएंगे और उनके उत्पादों के लिये बाजार खुलेगा, उसके खिलाफ पंजाब, हरियाणा ही नहीं, देश के दूसरे भागों से भी विरोध के सुर मुखर हो रहे हैं। सरकार कह रही है कि विरोध के पीछे कांग्रेस खड़ी है तो फिर भाजपा शासित हरियाणा में विरोध क्यों? यह ठीक है कि पंजाब व हरियाणा में स्थापित व्यवस्था में किसान एमएसपी और कृषि मंडी व्यवस्था का लाभ पूरी तरह उठाते हैं, इसलिये भी विरोध के स्वर यहां ज्यादा बुलंद हैं, मगर विरोध की आवाजें अब देश के दूसरे कोनों से भी आने लगी हैं। कहीं न कहीं केंद्र सरकार किसानों को भरोसे में नहीं ले पायी। यदि वह सुधारों पर देशव्यापी विमर्श करती और किसानों की समझ में आ जाता है कि वाकई उनका भला होने वाला है तो शायद किसान विरोध नहीं करता। निस्संदेह कृषि मंडियों के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति के तहत सरकारी खरीद में राज्य सरकारों का निश्चित हिस्सा होता है, जिसके चलते राज्यों को अपनी आय का एक जरिया बंद होने का खतरा भी महसूस हो रहा है। मगर, इसके बावजूद किसानों में यह आशंका घर कर गई है कि हालिया सुधार कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेट के हाथ में सौंपने की तैयारी है। निस्संदेह ऐसी तमाम आशंकाओं के निराकरण के लिये सरकार को आगे आना चाहिए। हालांकि, प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि एमएसपी को खत्म नहीं किया जायेगा और खरीद मंडियां पहले की तरह काम करती रहेंगी। लेकिन किसानों की आशंकाएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। पंजाब में रेल रोको आंदोलन और शेष देश में चक्का जाम से आम लोगों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ा है।
सवाल है कि जब सरकार कह रही है कि सरकारी खरीद होगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य पहले की तरह जारी रहेगा तो फिर किसान आंदोलित क्यों हैं? दरअसल, किसान आश्वासन से बढ़कर गारंटी चाहते हैं। कुछ कृषि विशेषज्ञ दावा कर रहे हैं कि सरकार को एक चौथा बिल न्यूनतम समर्थन मूल्य को गारंटी देने के लिये लाना चाहिए तो फिर आंदोलन समाप्त हो जायेगा। वहीं कृषि मंत्री कह रहे हैं कि हम आश्वासन दे रहे हैं। यह भी कि पहले भी एमएसपी को कानूनी गारंटी नहीं थी। लेकिन पहले एेसे सुधार के कानून भी तो नहीं बने थे। बहरहाल, मौजूदा स्थितियां राजग सरकार की चिंताएं बढ़ाने वाली हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उसका पुराना सहयोगी अकाली दल भी इस मुद्दे पर किसानों के साथ खड़ा है। अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे चुकी हैं। बिल पारित होने के बाद उसका दूसरा सहयोगी दल जद-यू भी एमएसपी से कम पर खरीद को दंडनीय अपराध बनाने की मांग कर रहा है। यह सामान्य समझ की बात है कि जिस वर्ग की भलाई के लिये कानून बनाया गया है वह उसका स्वागत क्यों नहीं कर रहा है। जाहिर-सी बात है कि सरकार सुधार के मकसद को किसानों तक पहुंचाने में नाकाम रही है। वहीं इन बिलों को राजग सरकार ने जिस ढंग से पारित कराया और राज्यसभा में जो अप्रिय घटनाक्रम उपजा, उसने भी देश व किसानों के मध्य यह संदेश दिया कि सब कुछ ठीक नहीं है। ऐसे में असंतुष्ट किसानों से संवाद की भी कोशिश की जानी चाहिए थी। निस्संदेह विरोध के पीछे राजनीति भी है लेकिन किसानों में भी तो भरोसा पैदा किया जाना जरूरी है। वहीं खेती का आधुनिकीकरण भी जरूरी है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना संकट के चलते हम बेहद चुनौती भरे समय में जी रहे हैं और ऐसे आंदोलनों से संक्रमण को विस्तार ही मिलेगा।