दिल्ली की एक चार मंजिला इमारत में लगी आग में 27 लोगों की मौत और कई के लापता होने की खबर विचलित करने वाली है। देश की राजधानी में जहां केंद्र व राज्य सरकार की सक्रियता है वहां सुरक्षा मानकों का ये आलम है तो शेष देश के हाल का आकलन करना कठिन नहीं होना चाहिए। इस भीषण आग में लोग जिंदा जलते रहे और फायर ब्रिगेड की मदद समय पर नहीं पहुंच सकी। इस देर में वह तमाशबीन भीड़ भी शामिल होती है जो बचाव कार्य में बाधक बनती है। आये दिन दिल्ली व अन्य महानगरों में अग्निकांड और जर्जर भवनों के ढहने की खबरें आती हैं। सुरक्षा उपायों की धज्जियां उड़ती नजर आती हैं। इन हादसों में ऐसे लोग मारे जाते हैं जिनका कोई कसूर नहीं होता है। दरअसल, अनियोजित भवनों का निर्माण, अग्निशमन उपायों की अनदेखी तथा निकासी मार्ग के पर्याप्त न होने की बात हर अग्निकांड के बाद सामने आती है। मगर हर जगह सुरक्षा मानकों को ताक में रखकर अग्निकांडों को आमंत्रित किया जाता है। हादसा होता है। हल्ला होता है। फिर वही ढाक के तीन पात। जिस वर्ग की जिम्मेदारी सुरक्षा मानकों की जांच की है वह सेवा नियोजकों-मालिकों से सांठ-गांठ करके चुप हो जाता है, जिसकी कीमत लोग जिंदा चिता में बैठकर चुकाते हैं। यदि हर हादसे के बाद आपराधिक लापरवाही करने वालों की जवाबदेही तय कर, फास्ट ट्रेक अदालतों से सजा होने लगे तो इस तरह के हादसों पर लगाम लग सकेगी।
निस्संदेह, सार्वजनिक जीवन में जिंदगियों से खिलवाड़ का यह कुत्सित खेल बंद होना चाहिए। आये दिन व्यावसायिक संस्थानों, होटलों, कारखानों व रिहायशी भवनों में होने वाले अग्निकांडों की जवाबदेही तय करने का वक्त आ गया है। जो भी विभाग जांच व निगरानी का जिम्मा लिये होता है, सबसे पहले उसकी जिम्मेदारी तय हो। तंत्र की संवेदनहीनता पर सख्ती से अंकुश लगाने का वक्त आ गया है। ऐसी हृदय विदारक घटनाएं हमें ही विचलित नहीं करती बल्कि सूचना माध्यमों से पूरी दुनिया में महसूस की जाती हैं, जो देश की छवि को लेकर कोई अच्छा संदेश नहीं देतीं। घटनाएं हमारे तंत्र की काहिली व असंवेदनशीलता को ही उजागर करती हैं। ऐसा क्यों है कि नीति-नियंता कोर्ट की फटकार के बाद ही जागते हैं? कोई काम जिम्मेदारी व जवाबदेही के साथ क्यों नहीं होता? सवाल यह भी है जब राष्ट्रीय राजधानी में तंत्र की काहिली का ये आलम है तो शेष देश से बेहतर स्थिति की कैसे उम्मीद की जा सकती है? निस्संदेह, बेकसूर लोगों की अकाल मृत्यु का ये सिलसिला बंद होना चाहिए और सार्वजनिक जीवन में उच्च सुरक्षा मानकों की स्थापना होनी चाहिए। वे नियम-कानून भी सख्त करने होंगे जिनके तहत किसी भवन व व्यावसायिक संस्थान का नक्शा पास होता हैं। हर बार यही सुनने को मिलता है कि निकलने का रास्ता संकरा था, आपातकालीन द्वार काम नहीं कर रहा था। अग्निशमन यंत्र उपलब्ध नहीं थे। बहुत हुआ अब ये बंद होना चाहिए।