पश्चिम बंगाल में कोई चुनाव बिना हिंसा के पूरा हो जाये तो अचरज ही होगा। दशकों से यहां साल-दर-साल चुनावी हिंसा का इतिहास रहा। इस बार के पंचायत चुनावों में भी ऐसा ही हुआ। बड़े पैमाने पर हिंसा के अतिरिक्त आगजनी, बूथ कब्जाने, बैलेट बॉक्स ले जाने व नष्ट करने के साथ जाली मतदान की भी खबरें हैं। शुरुआत में तेरह लोगों की हत्या की बात कही गई, अपुष्ट सूत्रों के अनुसार यह आंकड़ा ज्यादा हो सकता है। हमलों में बम व गोली का इस्तेमाल हुआ है। सवाल उठाया जा रहा है कि केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में हिंसा को क्यों नहीं टाला जा सका। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति का हिस्सा बन चुकी है, यही वजह कि तमाम प्रयासों के बावजूद इस पर नियंत्रण संभव नहीं हो पाता। इसी वजह से इस बार की हिंसा ने 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान हुई हिंसा का रिकॉर्ड तोड़ दिया, जिसका उदाहरण सर्वाधिक हिंसा के रूप में दिया जाता था, जिसमें दस लोग मरे थे। कलकत्ता हाईकोर्ट लंबे समय से चुनाव के दौरान हिंसा की आशंका के चलते बड़ी संख्या में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती की जरूरत बताता रहा है। लेकिन राज्य सरकार इसके पक्ष में नहीं थी। बाद में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती के खिलाफ राज्य सरकार व राज्य चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट भी गये, इस मांग को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया था।
दरअसल, राज्य सरकार व राज्य चुनाव आयोग की हीला-हवाली के चलते केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती में व्यवधान हुआ। यदि समय रहते उनकी तैनाती होती तो उम्मीद थी कि हिंसा को टाला जा सकता था। दरअसल, केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती न केवल देर से हुई बल्कि संवेदनशील इलाकों में उनकी तैनाती न करने के भी आरोप प्रशासन पर लगे। जिस बात को कलकत्ता हाईकोर्ट लंबे समय से महसूस कर रहा था, उसकी राज्य सरकार ने अनदेखी की। कोर्ट ने ग्यारह जुलाई को चुनाव परिणाम घोषित होने के दस दिन बाद तक केंद्रीय बलों की तैनाती के निर्देश दिये हैं ताकि जीत-हार के तनाव में फिर से हिंसा न हो। दरअसल, कहीं न कहीं राज्य के राजनीतिक दल इन चुनाव परिणामों के निष्कर्ष से आम चुनाव में बढ़त लेने की होड़ में जुटे रहे। यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल टीएमसी की भूमिका को लेकर सवाल उठा रहे हैं। भाजपा ने तो राज्य में राष्ट्रपति शासन तक की मांग कर दी है। छह सौ से अधिक बूथों पर फिर चुनाव कराने के चुनाव आयोग के फैसले से साफ है कि किस पैमाने पर धांधली व हिंसा हुई है। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सुरक्षा बलों की तैनाती को लेकर हुई देरी और सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में उनकी तैनाती न होने से हिंसा को बढ़ावा मिला। ऐसे में सवाल उठता है कि पिछली सदी में अस्सी के दशक से शुरू हुआ हिंसा का यह सिलसिला आखिर कहां जाकर थमेगा।