अभिभावक की भूमिका में दिखे सरकार
केंद्र सरकार के नये तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ दिल्ली की दहलीज पर आंदोलनरत किसानों ने आंदोलन के सौवें दिन कुंडली-मानेसर-पलवल एक्सप्रेस वे पर चक्का जाम कर अपना विरोध जताया। यह विडंबना ही है कि कोरोना संकट और विषम मौसम की परिस्िथतियों में किसान आंदोलनरत हैं। निस्संदेह न राज हठ जायज है, न किसान हठ। सरकार की कई दौर की बातचीत, सुप्रीम कोर्ट के प्रस्ताव तथा डेढ़ साल तक कृषि कानूनों को स्थगित करने के सरकार के प्रस्ताव को आंदोलनरत किसानों ने स्वीकार नहीं किया। बहरहाल, बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है। थोड़ी और उदारता सरकार को भी दिखानी चाहिए और किसानों को भी सरकार के आश्वासनों पर विश्वास करते हुए बातचीत के जरिये किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। सरकार के स्तर पर यह कमी मानी जानी चाहिए कि जिस किसान के हित के लिये कृषि सुधारों की पहल की गई, कम से कम उसकी समझ में सुधार के निहितार्थ आने चाहिए थे। निस्संदेह किसान आंदोलन के साथ कुछ राजनीतिक दल, किसानों के मुद्दों पर राजनीति करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं, जिसको लेकर सरकार की कुछ आशंकाएं भी हैं। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में किसी आंदोलन का इतना लंबे समय तक चलना किसी के भी हित में नहीं कहा जा सकता। कतिपय संगठन और कुछ देश इस मुद्दे को भारत के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
निस्संदेह, किसानों की अपनी समस्याएं हैं और उन्हें किसान के संदर्भों में नहीं देखा गया। किसान को एक वोट की तरह इस्तेमाल किया गया। किसानों को लोकलुभावने नारों से तो भरमाया गया लेकिन भविष्य की चुनौतियों के मद्देनजर प्रगति में किसान की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की गई। स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने में भी तमाम तरह के किंतु-परंतु होते रहे हैं। कृषि से जुड़े अंतर्विरोध यह भी हैं कि गेहूं-चावल को एमएसपी के दायरे में लाने से इन्हीं फसलों को किसान तरजीह देने लगे। बफर स्टॉक बढ़ने और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अन्न का उत्पादन बढ़ने तथा उत्पादन के मुकाबले खपत कम होने से भी सरकार के सामने एक ही तरह के अन्न उत्पादन की समस्याएं सामने आईं। सरकार नये प्रयासों से उन्हीं समस्याओं के समाधान तलाशने का दावा कर रही है। ऐसा भी नहीं है कि कृषि सुधारों को सिरे से खारिज कर दिया जाये। आईएमएफ, अमेरिका समेत कई संगठनों ने सुधारों की सकारात्मकता पर बात की है। लेकिन सवाल यही है कि क्यों सरकार इन लाभों के बाबत किसानों का विश्वास हासिल करने में चूकी है। बहरहाल, यह समय राज हठ और किसान हठ से ऊपर उठने का है। किसान हित भी देखा जाये और देश हित भी। कम से कम संवाद की प्रक्रिया तो शुरू होनी चाहिए, इस कथन के बाबत कि सरकार एक कॉल की दूरी पर तैयार है। किसान आंदोलन का लंबा खिंचना न तो किसानों के हित में है और न ही देश के हित में। यह गतिरोध को खत्म करने का वक्त है।