भारत सदियों से पर्व-त्योहारों की भूमि रहा है। इन पर्वों का मकसद जहां सामाजिक समरसता का संदेश रहा है, वहीं ऋतुओं के अतिरेक से उत्पन्न एकरसता को तोड़कर जीवन में उल्लास भरना भी रहा है। जब वर्षा ऋतु के दौरान सामाजिक निष्क्रियता और बरसात में होने वाली व्याधियों से जनमानस उबरता है तो गुलाबी ठंड की दस्तक के साथ पर्वों की शृंखला शुरू होती है। जन्माष्टमी, रक्षाबंधन के बाद रामलीलाओं का मंचन होता है। सदियों से मंचित की जा रही रामलीलाओं के जरिये जीवन की मर्यादाओं का पाठ जनमानस को स्मरण कराने का प्रयास किया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले श्रीराम के संपूर्ण जीवन में मर्यादाओं का पालन अभीष्ट रहा है। वे कठोरता से जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हैं और मर्यादा तोड़ने वालों को दंडित करते हैं। अब चाहे ऋषि-मुनियों की तपस्या भंग करने वाले असुर हों या फिर भाई का हक मारने वाले बाली को दंड देना। पिता के वचनों की मर्यादा को पूरा करने के लिये राजपाट छोड़कर वन गमन करते हैं। सबरी के बेर खाकर सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं। वनवासियों व आदिवासियों के साथ समता का व्यवहार करके उन्हें अपना साथी बनाते हैं। वनवास के दौरान रावण द्वारा छल करके सीता के हरण के बाद वे लंका पर चढ़ाई करके रावण को स्त्री अस्मिता से खिलवाड़ के लिये दंडित करते हैं। दरअसल, पूरी रामलीला हमें व्यावहारिक जीवन में मर्यादाओं के पालन व सदाचारी जीवन जीने की प्रेरणा देती है। उसी कड़ी में असत्य पर सत्य की जीत के रूप में दशहरा पर्व हमारे समक्ष एक प्रेरणा व सीख के रूप में उपस्थित होता है। यही वजह है कि सदियों से दशहरे पर रावण दहन की परंपरा देश में जारी है, जिसके समाज के लिये गहरे निहितार्थ हैं कि असत्य सदा हारता है। अन्याय पर न्याय की जीत होती है। पूरा देश इसे एक उत्सव की तरह मनाता है। जात-पात व धर्म के भेदों से इतर यह पर्व सामाजिक समरसता का भी संदेश देता है।
यह विडंबना है कि देश में कोरोना संकट की दस्तक ने हमें भारतीय पर्व-त्योहारों को परंपरागत उल्लास से मनाने के प्रति सचेत किया है। वह भीड़ जो कभी सामाजिक उल्लास व समरसता के पर्व की पर्याय थी, अब सुरक्षित दूरी की नसीहत है। तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच यह सावधानी भी जरूरी है। इसके बावजूद सर्वकालिक पर्व दशहरे की महत्ता कम नहीं होती। सुरक्षित दूरी के साथ हमें इस त्योहार को मनाना ही नहीं है बल्कि इसके गहरे निहितार्थों को अंगीकार भी करना है। यह पर्व हमें आत्ममंथन का मौका देता है। हम रावण के व्यक्तित्व को सिरे से खारिज नहीं कर सकते। वह एक प्रकांड विद्वान भी था। उसकी लंका में अकूत संपदा थी, जिसको उसने सोने से गढ़ा था। लेकिन जब एक स्त्री का अपहरण कर उसकी अस्मिता से खिलवाड़ किया तो उसका त्याग, तप व पुरुषार्थ राख बन गया। हर साल रावण दहन का यही सामाजिक संदेश लोगों को देने का प्रयास किया जाता है। लेकिन विडंबना यही है कि भारतीय समाज में लोगों ने रावण दहन का उल्लास तो मनाया, मगर उसके गहरे निहितार्थ को अंगीकार नहीं किया, जिसके चलते आज गली-गली में रावण संस्कृति के लोग स्त्री अस्मिताओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। आये दिन स्त्रियों से होने वाली यौन हिंसा उसकी गवाही दे रही है। कन्या पूजन वाले देश में स्त्रियों के खिलाफ लगातार बढ़ते अपराध जहां एक कानूनी समस्या है, वहीं एक बड़ी सामाजिक समस्या भी है कि हम नैतिक पतन की किस डगर पर बढ़ चले हैं। दुनिया की कोई पुलिस व कानून तब तक इस तरह के अपराध पर अंकुश नहीं लगा सकते जब तक हम इन अपराधों की मानसिकता वाले समाज पर अंकुश न लगाएं। कहते हैं कि भ्रमण पर निकले नारद मुनि ने एक बार रावण की लंका की संपदा व ऐश्वर्य देखकर भविष्यवाणी की थी कि रावण का पतन निश्चित है क्योंकि देश में मधुशाला व आयुधशाला का तो निर्माण हुआ है, लेकिन चरित्र निर्माणशाला नहीं बनी है।