तरुण कुमार दाधीच
भारतीय संस्कृति में गुरु एवं शिष्य की समृद्ध परंपरा रही है। यह सर्वविदित है कि बिना गुरु के जीवन में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। हमारे देश में अनेकानेक गुरु-शिष्य अनादि काल से आज तक हमारा मार्ग प्रशस्त करते चले आ रहे हैं। इसी कड़ी में हिंदी साहित्य के भक्ति काल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कबीर और उनके शिष्य धर्मदास का नाम उल्लेखनीय है। सही अर्थों में देखा जाये तो यदि धर्मदास अपने गुरु कबीर साहेब की वाणी के संकलन का सूत्रपात नहीं करते, तो महात्मा कबीर से आज हम शायद अनभिज्ञ ही रहते। यहां उल्लेखनीय है कि जब धर्मदास ने कबीर वाणी का संकलन करना प्रारंभ किया, तब कबीर की आयु 64 वर्ष थी।
कबीर बहुश्रुत ज्ञानी थे, परंतु उन्होंने कहीं पर भी विधिवत् रूप से शिक्षा ग्रहण नहीं की। उन्होंने कहा भी है- ‘मसि कागद छूयो नहिं, कलम गही नहिं हाथ। चरिउ जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।।’
कबीर ने कागज, कलम और स्याही को छुआ तक नहीं और आज विद्यार्थी एवं शोधार्थी उन पर अपनी कलम चला रहे हैं। इसका सारा श्रेय उनके शिष्य धर्मदास और उनके परवर्ती शिष्यों को जाता है। यदि कबीर के शिष्यों ने अपने गुरु की वाणी का संकलन नहीं किया होता, तो अन्य कवियों की तरह कबीर भी शायद अज्ञात बने रहते। उनके शिष्यों ने यही सोचा कि हमारे गुरु इतनी अच्छी बातें कहते हैं, तो क्यों न उनकी वाणी का संकलन किया जाये! धर्मदास के इस पुनीत पावन संकल्प ने आज कबीर को विश्वविख्यात बना दिया। धर्मदास के बाद तो उनके शिष्यों ने इस परंपरा को और अधिक समृद्ध किया।
कबीर वाणी के रूप में ‘बीजक’ उनका प्रामाणिक संग्रह माना जाता है। इसमें कबीर की साखियों, सबदों और रमैनियों का संकलन है। कबीर वाणी में गुरु की महिमा, ईश्वर का स्वरूप, आत्मा और परमात्मा की एकता, मूर्ति पूजा का विरोध, आचरण की पवित्रता पर उनके अनुभूत विचारों का प्राकट्य सहज एवं स्वाभाविक रूप में मिलता है। एक कवि होने के साथ-साथ कबीर महान समाज सुधारक भी थे। सही अर्थों में कबीर मानवता के कवि थे। वे हर जाति-वर्ग के लोगों को एक ही परमात्मा की संतान मानते थे। गुरु के संबंध में उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक एवं महनीय है कि यदि गुरु अज्ञानी है तो शिष्य भी अज्ञानी ही होगा। ज्ञानी गुरु का सान्निध्य व्यक्ति को उच्च धरातल पर ले जाता है।
एक कवि, गुरु, उपदेशक, समाज सुधारक के रूप में कबीर सदैव याद किये जाते रहेंगे परंतु उनके शिष्यों ने अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देकर जो अभूतपूर्व एवं दूरदर्शितापूर्ण कार्य किया, उसे कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता ।