अब संयम से राह तलाशी जाये
लगभग दो माह से दिल्ली की सीमाओं पर शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे किसान आंदोलन के क्रम में मंगलवार को निकाली गई ट्रैक्टर रैली का हिंसक रूप लेना दुखद घटना ही है। राष्ट्रीय पर्व पर इस घटनाक्रम ने देशवासियों को व्यथित किया है। सवाल उठ रहे हैं कि शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा आंदोलन अराजक तत्वों के हाथों में कैसे चला गया, जिसने राष्ट्रीय पर्व व राष्ट्रीय प्रतीकों की गरिमा को ठेस पहुंचाई। यह साल महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का शताब्दी वर्ष है, जो मालाबार में हिंसा के खिलाफ उभरा था। कालांतर फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा की घटना 22 भारतीय पुलिसकर्मियों की हत्या की वजह बनी, जिसके चलते महात्मा गांधी को यह आंदोलन खत्म करने के लिये बाध्य होना पड़ा। इस आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला था। इसके बावजूद भारतीयों के खिलाफ भारतीयों की हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा न मिले, आंदोलन को स्थागित कर दिया गया था। निस्संदेह देश में कोई भी लोकप्रिय आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब यह देशवासियों के प्रति दुर्भावना और हिंसा में तबदील न हो। अब चाहे यह प्रतिक्रिया आम आदमी के खिलाफ हो या वर्दी पहने लोगों के खिलाफ। हमने मंगलवार को गणतंत्र दिवस पर दिल्ली की सड़कों पर हिंसा, झड़पों व अराजकता का जो मंजर देखा, उसने किसान आंदोलन की शांतिपूर्ण मुहिम को क्षति ही पहुंचाई है। निस्संदेह इसने आंदोलन के मकसद की शुचिता को दागदार ही किया है। सही मायनो में तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ जारी आंदोलन ने देश में व्यापक जनसमर्थन हासिल किया था। उस हासिल पर इस घटनाक्रम से नकारात्मक असर ही पड़ा है। इससे किसान नेताओं की छवि पर आंच आई है। सवाल है कि जब बड़ी मशक्कत से ट्रैक्टर रैली के आयोजन को मंजूरी मिली थी तो यह आंदोलन अपने उद्देश्य से कैसे भटक गया। निस्संदेह यह किसानों और पुलिस के बीच हुए समझौते का उल्लंघन ही है। दो माह से किसान जिस धैर्य व संयम से अपना आंदोलन सफलतापूर्वक चला रहे थे, उस छवि को मंगलवार के घटनाक्रम से नुकसान ही पहुंचेगा।
निस्संदेह, लालकिले में हुए उपद्रव ने किसान आंदोलन और इसके नेताओं की छवि को खराब ही किया है। आंदोलन में जिन सिद्धांतों का अनुपालन किया जाता रहा है, यह उससे भटकने की ही स्थिति है। यदि प्रदर्शनकारियों ने अनुकरणीय संयम दिखाया होता और दिल्ली पुलिस से निर्धारित रूट पर ही ट्रैक्टर रैली आयोजित करने के वचन का पालन किया होता तो निश्चित ही अप्रिय घटनाक्रम को टाला जा सकता था। सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर बड़े किसान नेता नयी पीढ़ी को काबू रखने में विफल क्यों रहे। आखिर ट्रैक्टर रैली उनके हाथ से कैसे निकल गई। सवाल पुलिस और खुफिया एजेंसियों की कार्यशैली और क्षमताओं पर भी उठे हैं कि क्यों उन्हें इतने बड़े उपद्रव की जानकारी समय रहते नहीं मिली। कैसे उपद्रवकारी पुलिस का चक्रव्यूह तोड़कर लालकिले में राष्ट्रीय प्रतीकों से खिलवाड़ करने के खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने में सफल रहे, जिससे हर स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने वाली प्राचीर की पवित्रता भंग हुई। आखिर असामाजिक तत्व लालकिले पर सुरक्षा चक्र को भेद कर अपने मंसूबे हासिल करने में कैसे सफल हो गये? ऐसे तमाम सवालों को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। यह भी कि ये तत्व कौन थे, इन्हें किसने उकसाया? किसान नेताओं और सुरक्षा एजेंसियों को इनके मंसूबों की भनक क्यों नहीं लगी। ऐसे तमाम सवाल परेशान करते हैं। ऐसे हालात में किसान नेताओं को सरकार द्वारा कृषि सुधार कानूनों को निर्धारित अवधि तक स्थगित करने के प्रस्ताव पर विचार करना चाहिए, जिससे तल्खी कम की जा सके। अब भी किसान लंबे समय तक कानूनों के निलंबन की मांग कर सकते हैं। अगर फिर भी सरकार अपनी बात से हटती है तो किसान फिर से आंदोलन करने के लिये स्वतंत्र हैं। जरूरत इस बात की भी है कि आंदोलन को लेकर उपजी कटुता व उत्तेजना को शांत करने का प्रयास किया जाये, जिससे अराजक तत्वों को फिर से शह न मिल सके।