प्रधानमंत्री की राजनीतिक पाठशाला गुजरात में भाजपा की रिकॉर्ड जीत चौंकाने वाली रही। यह आश्चर्य की बात है कि लगातार सात बार चुनाव जीतने के बाद जनता में सत्ता विरोधी रुझान बेअसर रहे। माना जा रहा था कि मोरबी हादसे, महंगाई और बेरोजगारी जैसे देशव्यापी मुद्दे अपना असर दिखाएंगे, लेकिन उलटे रिकॉर्ड मतों से जनता ने भाजपा को राज सौंपा है। कहीं न कहीं गुजरात की जनता ने नरेंद्र मोदी से अपनी अस्मिता को जोड़ लिया है। यही वजह है कि आप की आक्रामक चुनावी रणनीति व कांग्रेस के परंपरागत आधार के बावजूद भाजपा को पुन: ताज मिला। इस चुनाव का एक नतीजा यह जरूर है कि वोट प्रतिशत के आधार पर आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया। हां, हिमाचल की कसक जरूर भाजपा को साल रही होगी कि प्रधानमंत्री के तूफानी दौरों व तमाम प्रचार के बावजूद हिमाचल की जनता ने ‘सरकार नहीं रिवाज बदलेंगे’ को खारिज कर दिया। यहां हिमाचल चुनावों को लेकर चुनाव सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता जरूर दांव पर लगी, क्योंकि तमाम चुनाव पूर्व व एक्जिट पोल हिमाचल के चुनाव परिणामों के अनुरूप नहीं रहे। कमोबेश यही स्थिति दिल्ली के एमसीडी चुनाव परिणामों को लेकर भी सामने आई। आप की इस अप्रत्याशित जीत का ठीक आकलन नहीं किया गया था। हां, गुजरात चुनावों के बारे में जरूर कहा जा रहा है कि आप की मुहिम से कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिरा, जिसके चलते भाजपा को अप्रत्याशित कामयाबी मिली। हालांकि, इस चुनाव में भाजपा का चुनाव प्रतिशत भी बढ़ा मगर सीटों की संख्या उस अनुपात में ज्यादा रही। बहरहाल, एक बात तय है कि गुजरात के मध्यवर्ग व शहरी क्षेत्रों में मोदी का जादू कायम है। उल्लेखनीय है कि ऐसी रिकॉर्ड कामयाबी पहले 1985 में कांग्रेस ने माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में 149 सीटें हासिल करके हासिल की थी, इस रिकॉर्ड को इस बार भाजपा ने तोड़ दिया। वहीं गुजरात में हिंदुत्व फेक्टर का मुकाबला करने का कांग्रेस के पास विकल्प नहीं था। वहीं कांग्रेस सुनियोजित ढंग से लड़ाई के लिये संगठन को तैयार नहीं कर पायी। उसके पास जमीन से जुड़ा कोई बड़ा नेता भी नजर नहीं आया।
वहीं हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने चालीस सीटें जीतते हुए शानदार वापसी की, जबकि सत्तारूढ़ भाजपा 25 सीटों पर सिमट गई। इसके बावजूद कि प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और हिमाचल के ही भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने लगातार रैलियां व रोड शो किये। मगर हिमाचल के मतदाताओं ने भाजपा के नारे ‘सरकार नहीं रिवाज बदलेंगे’ पर कान नहीं धरा। लगता है कि ढाई लाख कर्मचारियों वाले राज्य में मतदाताओं ने पुरानी पेंशन स्कीम लागू करने के कांग्रेस के वायदे पर मोहर लगाई है। इससे करीब डेढ़ लाख कर्मचारियों को फायदा हो सकता है। सवाल यह भी है कि कांग्रेस इस वायदे को कैसे पूरा करेगी जबकि पिछले पांच साल में सरकारी खर्च सत्रह हजार करोड़ से बढ़कर बाईस हजार करोड़ रुपये हो गया है। पुरानी पेंशन के लिये फंड जुटाने से विकास योजनाओं पर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन इस मुद्दे ने कांग्रेस प्रत्याशियों को मदद जरूर पहुंचायी है। वहीं दूसरी फौजी संस्कृति वाले पहाड़ी राज्य में अग्निवीर योजना का गुस्सा भी मतदाताओं पर हावी रहा। हर साल फौज में भर्ती होने वाले हजारों युवाओं पर इसका बुरा असर पड़ा। वहीं देशव्यापी महंगाई व बेरोजगारी का मुद्दा भी चुनावों में हावी रहा। निस्संदेह, भाजपा द्वारा मोदी की छवि व राष्ट्रीय मुद्दों के इतर कांग्रेस के स्थानीय मुद्दे मतदाताओं को रास आये। सत्ता विरोधी लहर का जो प्रभाव हर पांच साल में नजर आता है, उसका असर कायम रहा। वहीं चुनाव में स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की विरासत को भी कांग्रेस ने भावनात्मक मुद्दे के रूप में तरजीह दी तथा उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह को कांग्रेस की बागडोर सौंपी। दूसरी ओर भाजपा के दिग्गज नेता व दो बार मुख्यमंत्री रहे प्रेम कुमार धूमल की अनदेखी और टिकट बंटवारे का असंतोष बागियों के रूप में भाजपा को महंगा पड़ा। यदि समय रहते पार्टी में जारी अंतर्कलह को दूर किया जाता तो शायद भाजपा की कुछ सीटें बढ़ सकती थीं।