हर्षदेव
क्या महिलाओं को घर के कामकाज और देखभाल के लिए मेहनताना देने का समय आ गया है! इस घरेलू व्यस्तता के कारण ही तो वे मनचाहा मुकाम हासिल करने में पिछड़ जाती हैं या फिर उनको अपने कैरियर की कुर्बानी देनी पड़ती है। दुनियाभर में महिलाओं को उनकी मेहनत का हक़ दिलाने की मुहिम के समर्थन में आवाज उठाने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। हाल में चीन की एक अदालत ने नयी मिसाल पेश की, जब तलाक के एक मुकदमे में ऐतिहासिक फैसला देते हुए पति को आदेश दिया कि वह अपनी पत्नी को घरेलू कामकाज में श्रम और समय खपाने का हर्जाना (लगभग 5.5 लाख रुपये) भी अदा करे! चीन महिलाओं को श्रम के मुआवजे के लिए कानून भी ले आया गया है। भारत में इस दिशा में पहल तमिल फिल्मों से राजनीति में कदम रख रहे कमल हासन ने की है। कमल हासन ने महिलाओं को उनके मेहनताने का हक़ दिलाने का घोषणापत्र में वादा करके समाज को उसके कर्तव्य की याद दिलाई है।
भारत में महिलाओं पर किया गया एक अध्ययन बताता है कि उनको पुरुषों से पांच गुना ज्यादा काम करना पड़ता है। इन निष्कर्षों के अनुसार देश में लगभग 16 करोड़ स्त्रियों का जीवन घरेलू कामों में ही पूरा हो जाता है। गांवों में स्थिति और भी अधिक अन्यायपूर्ण है। वहां गृहिणी को औसतन 14 घंटे काम करना होता है। विकसित देशों में भारत के मुकाबले स्त्री-पुरुष के बीच काम के घंटों का अंतर केवल दो गुना है।
महिलाओं के मामले में भारत की तरह ही चीन का समाज भी परंपरागत सोच वाला है। वहां घरेलू कामकाज के मुआवजे का कानून लाया गया तो वैचारिक क्षेत्र में जबरदस्त बहस छिड़ गई। फिर अदालत ने पत्नी को मेहनताना देने का आदेश दिया तो लोगों ने उसको किसी अजूबे की तरह लिया। इस फैसले को इंटरनेट पर 60 करोड़ से भी ज्यादा लोगों ने देखा। नये कानून में महिला का मेहनताना उसके काम के घंटों और पति के घर में सहयोग तथा उसकी आय के आधार पर तय करने का प्रावधान है। कई अन्य देशों में भी इस दिशा में बहस और विमर्श चल पड़ा है। इस मामले में वेनेजुएला बहुत सजग है। वहां पहले से ही घरेलू महिलाओं के लिए कानूनी आधार पर मुआवजा देने की व्यवस्था है। यह महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी है। इसके अनुसार उनके मूल वेतन में घरेलू कामों का मुआवजा भी जोड़ कर दिया जाता है। वेनेजुएला की महिलाओं का कहना है कि यह भुगतान जरूरी है क्योंकि इससे उनमें आत्मविश्वास के साथ ही आजादी और वित्तीय सुरक्षा का अहसास रहता है।
क्या भारत में महिलाओं को घरेलू देखभाल के लिए मुआवजे के प्रावधान को लागू किया जा सकता है! इस पर समाजशास्त्रियों की राय बंटी हुई है। लंदन के किंग्स कॉलेज के विधि और सामाजिक न्याय विभाग में प्रोफेसर प्रभा कोटेस्वरन कहती हैं कि भारत के लिहाज से घरेलू स्त्रियों को मेहनताना देने की कमल हासन की पेशकश अनूठी है। यह घरेलू बंधन और घोर सामाजिक असमानता और असुरक्षा के विरुद्ध एक अभिनव विचार है। अभी तक महिलाओं की स्थिति अवैतनिक कामगार की तरह रही है। ऐसी व्यवस्था पर विचार करते समय पहला प्रश्न यह होगा कि घरेलू कामकाज और देखभाल के श्रम का हिसाब कैसे लगाया जाए! एक और विचारणीय प्रश्न विवाहित और अविवाहित स्त्रियों के श्रम में अंतर का भी उठेगा। हालांकि घरेलू काम के मुआवजे का ताल्लुक परिश्रम की मान्यता, आर्थिक आत्मनिर्भरता और आजादी के अहसास से ज्यादा है। फिर भी, काम के नापतौल का तरीका सोचना भी तो जरूरी होगा। प्रो. कोटेस्वरन कहती हैं ‘मैं इस मामले में भारत की अदालतों के मोटर वाहन कानून के अंतर्गत महिलाओं के लिए तय किए जाने वाले मुआवजे को शुरुआती कदम के रूप में देखती हूं। ये अदालतें करीब तीन दशक से हिसाब-किताब का यह तरीका अपना रही हैं। इसके लिए महिला की सामाजिक हैसियत, वैवाहिक जीवन में उसका योगदान और यदि वह कमाती है तो उसकी मासिक आय को आधार बनाया जाता है। हालांकि, कुछ जज महिलाओं के मातृत्व का कोरा गुणगान और उनको राष्ट्र निर्माता बताकर पुरुषवादी सोच वाले निरर्थक फैसले देते हैं लेकिन विचारशील न्यायिक अधिकारी विवाहित महिलाओं के मामले में सामाजिक समानता और श्रम के अनुपात को ध्यान में रखकर मुआवजा तय करते हैं।’
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ऐसे काम को अवैतनिक बताता है जो घर के अन्य व्यक्तियों या समुदाय की देखभाल अथवा निर्वाह के लिए किया जाए। इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों ही काम शामिल हैं। संगठन के अनुसार भारत में स्त्रियां घरेलू कामों के लिए हर दिन 297 मिनट खर्च करती हैं जबकि पुरुष केवल 31 मिनट का समय घर में देते हैं। समाजसेवी संस्था ऑक्सफम की ओर से भारत में किए गए अध्ययन के अनुसार 15 से 59 आयु वर्ग की 94 प्रतिशत महिलाएं बेगार (अवैतनिक) के लिए अभिशप्त हैं जबकि केवल 20 फीसद पुरुषों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। इस आधार पर अर्थशास्त्री जयति घोष और सी.पी. चंद्रशेखर का निष्कर्ष है कि श्रम के बदले पुरुषों को 70 और महिलाओं को 20 प्रतिशत मुआवजा मिल पाता है। ऑक्सफम ने एक शोध के आधार पर बताया है कि दुनिया में एक साल में महिलाओं से कराए जाने वाला अवैतनिक श्रम का मूल्य 10.8 खरब डॉलर है।
महिलाओं को मुआवजा दिए जाने के विचार को भारतीय सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में देखें तो सबसे अहम प्रश्न यह भी है कि उनके श्रम का भुगतान करने का जिम्मा कौन पूरा करेगा! क्या पति करेंगे भुगतान या सरकार करेगी अथवा टैक्स की राशि में से उनका पारिश्रमिक चुकाया जाएगा?
कमल हासन की पहल का अंजाम जो भी हो, कुछ बातें तय हैं कि हम जब स्त्री-पुरुष समानता की बात करें तो समझ लें कि चाहे काम के बंटवारे में लैंगिक गैरबराबरी की बात हो या बिना भुगतान श्रम की अथवा मजदूरी में भारी अंतर की, हमें बहुत लम्बा रास्ता तय करना है क्योंकि जीवन की वास्तविकताएं पुरुषवादी सोच और ‘प्रेम’ तथा ‘कर्तव्य’ की पारिवारिक परम्पराओं में बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं और उनसे छुटकारे के लिए लम्बी बहस और तार्किकता की जरूरत है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।