किसी मुल्क की मजबूती और लचीलापन उसके नागरिकों द्वारा दिखाई जाने वाली हिम्मत और सहन शक्ति से निर्धारित होती है। भारत के नागरिकों ने सबसे मुश्किल चुनौतियों का सामना किया जब वर्ष 1918 में देश जानलेवा फ्लू की जद में आ गया था। उस महामारी में अनुमान के मुताबिक 1.4 से 1.7 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। अब कोई पूरे एक सौ साल बाद फिर से भारत को भी कोविड-19 की महामारी की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। अभी तक इस बीमारी से विश्वभर में लगभग 2.9 करोड़ लोग संक्रमित हो चुके हैं और भारत में करीब 50 लाख केस हुए हैं। लेकिन इस बार इसमें सीमा पर चीनी घुसपैठ के रूप में एक और गंभीर समस्या भी आन जुड़ी है। चीन अपनी इलाकाई महत्वाकांक्षा को पूरा करने को अक्सर एशिया-प्रशांत के पड़ोसियों को डराने हेतु भुजाएं फड़फड़ाता रहता है। लेकिन जिस बात का चीन को अंदाज नहीं था वह है भारत सरकार और सेना एवं नागरिकों द्वारा दिखाई गई दृढ़ता, जो लद्दाख में चीन की इलाका कब्जाने संबंधी महत्वाकांक्षा को जी-जान लड़ा कर वापस धकेलने में देखने को मिली है।
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और उनके चीनी समकक्ष वांग जी के बीच 10 सितंबर को मास्को में मुलाकात हुई है, जिसमें लद्दाख सीमा पर बने तनाव को फौरन घटाने के लिए वार्ता की गई है। इसमें मुख्य निर्णय यह हुआ कि दोनों पक्ष ऐसा कुछ करने से परहेज रखेंगे, जिससे तनाव में और इजाफा हो, पिछली बैठकों में किए गए समझौते और प्रतिबद्धता पर कायम रहेंगे ताकि सीमा पर शांति बनी रहे। इस बैठक में क्रियान्वयन योग्य जिस हिस्से पर सहमति बनी है वह यह कि लद्दाख में भारत-चीन के सैन्य कमांडरों के बीच जल्द ही बैठक होगी ताकि दोनों पक्ष संवाद के जरिए सीमा रेखा से अपने सैनिक पीछे हटाने हेतु रास्ता निकाल सकें।
जब से चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को भारत ने अपने प्रतिकर्म से पैंगोंग झील में डुबो डाला है तब से चीन की नाटकबाजियां ज्यादा उग्र हो गई हैं। इस क्षेत्र की ऊंची चोटियों पर अपना नियंत्रण बनाने के बाद भारतीय सेना ने खुद को ऐसे सामरिक बिंदुओं पर सुदृढ़ कर लिया है, जिससे चीनी फौज के और आगे बढ़ने के प्रयासों में रुकावटें खड़ी हो गई हैं, जबकि उसका इरादा देपसांग क्षेत्र और सामरिक महत्व के दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी तक भारतीय पहुंच को चुनौती देना था। भारतीय सैनिक अब इस इलाके में पहले की तरह बेरोकटोक आवाजाही कर सकते हैं। भारत लद्दाख में दोनों देशों के सैन्य कमांडरों के बीच वार्ता का हिमायती है ताकि तनाव खत्म किया जा सके। हालांकि, चीन के सामने अपनी तरफ का प्रबंधन करने को पहले काफी गंभीर समस्याओं से निपटना होगा, जिन इलाकों पर उसने नियंत्रण बनाया है वह जल्द ही आगामी सर्दी की बर्फ में दब जाएंगे, जो कि अक्तूबर के महीने में गिरनी शुरू जाती है। भारतीय समकक्षों की बनिस्बत जो सर्दी भर सियाचिन में तैनात रहते हैं चीनियों को ऐसा कोई वास्तविक युद्धक अनुभव नहीं है। इधर, लद्दाख में जो इलाका भारत के नियंत्रण में है अब वहां से सर्दी में भी अपने सैनिक पीछे हटाने के कोई सवाल तब तक नहीं है जब तक कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा की सटीक शिनाख्त करवाने के लिए नक्शा पेश नहीं कर देता। साथ ही सीमा संबंधी विवाद को सुलझाने के लिए संजीदा होकर बातचीत में आगे नहीं बढ़ता।
वर्ष 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वेन जिया बाओ ने ‘भारत-चीन सीमा विवाद निदान हेतु राजनीतिक पैमाने एवं मार्गदर्शक सिद्धांत’ नामक संधि को सिरे चढ़ाया था। समझौते में कहा गया था कि दोनों पक्ष सीमा की सुस्पष्ट निशानदेही के लिए आसानी से पहचाने जा सकने वाले प्राकृतिक भौगोलिक चिन्हों को दर्ज करते हुए सीमा नियंत्रण रेखा का निर्धारण करेंगे। साथ ही सीमा संबंधी निपटारा करते वक्त दोनों पक्ष सीमांत इलाकों में रह रहे अपने नागरिकों के हितों का भी ध्यान रखेंगे। परंतु बाद में चीन ने सीमा संबंधी निशानदेही करने के लिए सटीक लोकेशन देने से इनकार किया था, हालांकि दावा यह कि वह संधि का सम्मान करता है। चीन वास्तविक सीमा रेखा को लेकर जान-बूझकर असमंजस बनाए रखना चाहता है ताकि जब चाहे इलाकों पर मनमाफिक दावे कर सके। हालांकि, इनकी सत्यापना के लिए उसके पास ठोस ऐतिहासिक आधार या प्रमाण नहीं है।
नि:संदेह चीन के दंभपूर्ण व्यवहार और उद्दंडता को लेकर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की चिंताएं बढ़ रही हैं। चीन स्थापित अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानूनों को धता बताकर दक्षिण चीन सागर के पड़ोसी मुल्कों जैसे कि फिलीपींस, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्रुनेई के सागरीय इलाकों पर अपना दावा करते हुए कुछ द्वीपों पर कब्जा कर भी चुका है। जापान और ताईवान के साथ भी उसने सीमा संबंधी आक्रामक तेवर अपना रखे हैं। चीन को वर्ष 1979 में वियतनाम के साथ हुए युद्ध में मुंह की खानी पड़ी थी और जाहिर है यह बेइज्जती भरी हार आज भी उसके ज़ेहन में है। आसियान संगठन के 10 देशों ने अब आपस में हाथ मिलाते हुए मांग की है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र समुद्र-कानून संहिता का पालन करना चाहिए, इससे पहले अंतर्राष्ट्रीय समुद्र कानून न्यायाधिकरण ने भी चीन को स्थापित नियमों का उल्लंघन करने का दोषी करार दिया था। चीन के विदेश मंत्री वांग यी के लिए मौजूदा समय बहुत मुश्किल है क्योंकि हाल ही में जिन यूरोपियन देशों की यात्रा पर गए, जिसमें जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे, इटली और चेक गणराज्य शामिल हैं, वहां-वहां मेजबानों ने चीन के शिनजियांग प्रांत और हांगकांग में मानवीय अधिकार मूल्यों के हनन के अलावा उसकी 5-जी महत्वाकांक्षा को लेकर चिंताएं जताई हैं।
भारत के साथ रिश्तों में चीन का मुख्य ध्यान सीमा के पुनः निर्धारण पर है, जबकि ठीक इसी वक्त वह क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रभाव को घटाना चाहता है। साथ ही वह भारत की मुक्त और नियम-आधारित व्यापार एवं निवेश नीतियों का भी दोहन करना चाहता है। एशिया और अफ्रीका भर में विकासशील मुल्कों को अब पता चल गया है कि मदद के नाम पर दिए गए चालाक शर्तों वाले चीनी कर्ज को उतारने में वे असमर्थ हैं। इसलिए अब बाध्य होकर अपने प्राकृतिक खनिज स्रोत, बिजली उत्पादन क्षमताएं, बंदरगाह और हवाई अड्डे चीन को व्यापारिक एवं सैन्य गतिविधियों के लिए सौंपने पड़ेंगे। चीन का ‘जमूरा’ बनने को नया-नया उद्धृत हुआ नेपाल और इसके प्रधानमंत्री ओली जल्द ही उपरोक्त वर्णित मुल्कों की जमात में शामिल होने को मजबूर हो जाएंगे, जिनका चीन की तथाकथित सहायता से मोहभंग हो चुका है। चीन की बहुप्रचारित ‘एक पट्टी-एक सड़क परियोजना’, जिसका हिस्सा ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा’ है, वह अब कहावत वाला सफेद हाथी बनता जा रहा है। इसके बावजूद चीन पाकिस्तान को सैन्य-आर्थिक-कूटनीतिक रूप में मदद देने की अपनी नीति पर कायम रहेगा। चीनी चुनौतियों के मुकाबले के अलावा भारत के पास और कोई विकल्प है भी नहीं।
चीन की दबंगई और विस्तारवादी महत्वाकांक्षा से निपटने को भारत की रणनीति का एक मुख्य उपाय ‘क्वाथ’ नामक चौकड़ी का गठन किया जाना है। इस गठजोड़ में भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका हैं। इसका संज्ञान लेकर चीन ने पहले ही चिंता और बौखलाहट के संकेत दिखा दिए हैं। क्वाड को अपनी सागरीय सुरक्षा गतिविधियों में वियतनाम और इंडोनेशिया को अपने साथ जोड़ना चाहिए। फ्रांस के साथ निकट सहयोग बनाते हुए क्वाड अपने संगठन को यूरोपीय आयाम दे सकता है।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।