हर्षदेव
गरीबी-अमीरी का बढ़ता फासला न केवल दुनिया के अर्थशास्त्रियों, बल्कि समाजशास्त्रियों को भी चिंतित करने लगा है। यह समस्या कोविड-19 महामारी के चलते और भी विकराल हुई है। इसी कारण यह अब एक बड़ी चुनौती के रूप में ली जा रही है। अर्थनीति निर्धारकों की चेतावनी है कि यदि इसका शीघ्र समाधान नहीं किया गया तो सामाजिक व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने का खतरा ज्यादा दूर नहीं है।
दुनिया का धनिक वर्ग इस सच्चाई से भयभीत है कि युवा पीढ़ी में बढ़ती बेरोजगारी, जीवन-यापन के लिए जूझती आबादी में लगातार पनपता रोष कभी भी अराजकता की शक्ल अख्तियार कर सकता है। आज केवल 10 अमीरों के पास जितनी पूंजी जमा हो गई है, वह 350 करोड़ लोगों या दुनिया की आधी आबादी की कुल सम्पदा से भी ज्यादा है।
भारत में पिछले एक दशक में खरबपतियों की तादाद दस गुणा बढ़ गई है। दुनिया के एक-तिहाई अमीर उसी देश में हैं, जहां लगभग 50 करोड़ आबादी दीन-हीन हालात में, पेट भरने की मुश्किलों से रोज जूझती है। इस वक्त भारत में 111 खरबपति और चार लाख से ज्यादा अरबपति हैं।
विश्व के खरबपतियों–रे डेलियो, वारेन बफे, क्लॉस श्वाब या मार्क क्यूबन को गरीबों का परोपकार करने की नहीं सूझी है। उनको इतिहास ने सिखाया है कि ये हालात असंतोष को आक्रोश में बदल सकते हैं और इसी कारण उनको ऐसी चिंता करनी पड़ रही है।
प्राचीन सामाजिक और आर्थिक इतिहास के अध्येता प्रो. वाल्टर श्नेदेल कहते हैं कि असमानता के विस्फोटक स्तर पर पहुंच जाने के बाद सरकार के लिए अमीरों के हितों की रखवाली एक मजबूरी बन जाती है। इसका स्वाभाविक परिणाम गरीबों के दमन के रूप में सामने आता है। श्नेदेल के अनुसार इतिहास बताता है कि यह असमानता महामारी, युद्ध, सरकार के पतन या क्रांति से ही मिटती है।
उदारीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों से 1990 के दशक के बाद दुनिया में पूंजी का बेहद तेजी से विस्तार हुआ और खास बात यह कि इस बढ़ोतरी का सबसे बड़ा हिस्सा कुछ गिने-चुने लोगों के पास जमा होता गया। केवल 10 धनपतियों के पास विश्व की आधी आबादी की कुल सम्पदा से भी ज्यादा पूंजी जमा हो जाना आकस्मिक नहीं है। इसके लिए बाकायदा नीतियां तैयार की गईं और भारत जैसे गैर-विकसित देशों को भी उन पर चलने के लिए मजबूर किया गया। इस उद्देश्य के लिए पहले गेट (जनरल अग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रैड) बनाकर विभिन्न देशों के आपसी व्यापार के लिए नए नियम बनाए गए। फिर उसको आधार बनाकर 1994-95 में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का गठन किया गया। अनेक ऐसे नए कानून रचे गए, जिनका मकसद हर हालत में संपन्न और विकसित प्रतिष्ठानों व देशों की पूंजी को बढ़ाना और धनपतियों के लिए लाभ की नीतियां बनाना था, जिसमें आर्थिक असमानता में भारी बढ़ोतरी हुई।
विश्व आर्थिक संगठन के संस्थापक-अध्यक्ष क्लॉस श्वाब ने चेतावनी भरे अंदाज में कहा भी है कि यदि इस असमानता को कम न किया गया तो विश्व समाज का वजूद खतरे में पड़ जाएगा। यही बात अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व प्रबंध निदेशक क्रिस्टीन लैगार्ड भी कह चुके हैं ‘ज्यादातर देशों में बहुत ही थोड़े लोग आर्थिक प्रगति का फायदा उठा रहे हैं, लेकिन यह स्थिति समाज की स्थिरता और सामंजस्य के लिहाज से बहुत दिन तक चलने नहीं दी जा सकती।’ विश्व बैंक के अध्यक्ष रह चुके जिम योंग किम सावधान करते हुए कहते हैं ‘बढ़ती असमानता का समाधान करने में असफलता का अर्थ है सामाजिक अराजकता जो कभी भी विस्फोटक रूप ले सकती है।’
भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा गैर-बराबरी की समस्या वाला देश है। केवल एक प्रतिशत लोगों के पास 55 लाख करोड़ की पूंजी जमा है। 2017-18 के दौरान 7300 नए लोग अरबपतियों की जमात में शामिल हुए और इसके साथ बड़े धनपतियों की संख्या तीन लाख 50 हजार की संख्या पार कर गई। इस जमात की कुल संपत्ति का आंकड़ा 7.7 खरब तक पहुंच गया है। दूसरी ओर देश के प्रति वयस्क व्यक्ति के धन का औसत लगभग पांच लाख 15 हजार रुपये है, जबकि चीन में प्रति बालिग के धन का औसत 35 लाख रुपये है। देश में पूंजी का इजाफा तेजी से हुआ है, लेकिन उससे आबादी का अधिसंख्य हिस्सा वंचित है। तथ्य बताते हैं कि आज 91 फीसद लोगों की कुल संपत्ति 7.35 लाख से कम है, जबकि 0.6 प्रतिशत की औसत हैसियत 73.50 लाख या उससे अधिक है। औद्योगिक दृष्टि से विकसित जापान को यह श्रेय है कि वहां असमानता की दर दुनिया में सबसे कम है। भारत से तुलना करें तो यहां देश की पूंजी का 55 प्रतिशत हिस्सा एक फीसद लोगों और 68.6 पूंजी पर पांच प्रतिशत लोगों का कब्ज़ा है। 76.8 फीसद संपत्ति मात्र दस प्रतिशत लोगों के पास है। दूसरे शब्दों में कहें तो आधी आबादी के हिस्से में राष्ट्रीय संपत्ति का 4.1 प्रतिशत से भी कम रह गया है। भारत के मामले में असमानता का ग्राफ़ अमेरिका से भी बहुत आगे पहुंच गया है। वहां एक प्रतिशत के पास मात्र 37.3 फीसद पूंजी है और भारत में यह आंकड़ा 55 फीसद को भी पार कर रहा है।
आम जनता की अनदेखी करके सामाजिक व्यवस्था को बहुत समय तक कायम नहीं रखा जा सकता, इस तथ्य से नजर चुराना अराजकता की ओर बढ़ने के अलावा कुछ नहीं है। यह स्थिति व्यवस्था समाज के सौहार्द तथा शांति के लिए चुनौती बनेगी।