गुरबचन जगत
वर्ष 1950 के दशक में पुणे में बिताए बचपन के दिनों में अक्सर बड़ों को कहते सुना था ‘बोम्बे पुलिस भारत की स्कॉटलैंड यार्ड’ है। व्यावसायिक दक्षता और ईमानदारी को लेकर बोम्बे पुलिस की साख हुआ करती थी। आज जब मैं पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त हो चुका हूं, बीते वक्त को याद कर दावे से कह सकता हूं कि पुलिस अकादमी में दाखिला लेते वक्त बोम्बे पुलिस देश का सर्वश्रेष्ठ पुलिस बल था। करीब एक महीना पहले मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह ने अपने बॉस गृहमंत्री पर पहला आरोप पत्र दागा था। हालांकि, स्थानांतरण से पहले ऐसी चिट्ठी वे मुख्यमंत्री, गृह सचिव या फिर मुख्य सचिव को लिख सकते थे। कायदे से उन्हें उसी दिन अपनी शिकायत लिखकर दर्ज करवानी चाहिए थी, जब गृहमंत्री ने कथित तौर पर उन्हें और मातहतों को गैरकानूनी उगाही करने को कहा था। क्या ऐसा करने में विफल रहने से निष्कर्ष निकलता है कि जो कुछ होता था या हुआ, उसमें सिंह भी लिप्त थे? वे पुलिस मुखिया थे और सारी जिम्मेवारी उनकी बनती है और समयानुसार शिकायत दर्ज न करवाकर वे नैतिक एवं कानूनी स्थिति से समझौता कर बैठे हैं। स्थानांतरण होने के बाद पत्र लिखना और बात है, ऐसा करके उन्होंने अपनी विश्वसनीयता पर खुद प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
लेख में अम्बानी के घर के बाहर विस्फोटक लदी कार मिलने की घटना शामिल नहीं करना चाहूंगा। वह मामला एक ऐसी पड़ताल बना दिया गया है, जिसका विभिन्न जांच एजेंसियों के मकड़जाल में उलझकर बिना कोई स्पष्ट अंतिम नतीजा निकले, पटाक्षेप हो जाएगा। यहां मैं केवल परमबीर सिंह के स्थानांतरण वाले विषय तक ही सीमित रहना चाहता हूं। मैंने लगभग महीना भर घटनाक्रम में कुछ नया होने का इंतजार किया है। इस बीच विभिन्न समाचारों पत्रों पर नजर बनाए रखी कि शायद कोई प्रतिक्रिया मिले। जितना देख पाया, उसके मुताबिक न तो भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी संघ की ओर से कोई प्रतिक्रिया अाई, न ही केंद्र अथवा राज्यों की पुलिस इकाइयों की तरफ से कोई बयान आया। हैरत है कि दिल्ली, मुंबई या अन्य महानगरों की किन्हीं सिविल सोसाइटियों की ओर से भी प्रतिक्रिया नहीं दिखी। महाराष्ट्र सरकार और सत्ता में भागीदार राजनीतिक दलों ने कुछ दिन तक पत्र से उठने वाली तरंगों के संभावित अच्छे-बुरे परिणामों का गुणा-भाग करने के बाद परमबीर के आरोपों को कूड़ेदान में डाल दिया है। बहरहाल, परमबीर सिंह को अब मान लेना चाहिए कि उनका सूरज ढलने को है। मैंने प्रतिक्रियाओं को लेकर इसलिए तफ्सील से लिखा है कि क्या पुलिस आयुक्त की बदली किए जाने के बाद विरोध का एक भी स्वर उठा? लोगों और पुलिस कर्मियों का इस तरह चुप्पी साधना किसलिए है?
मैं इससे पहले भी पिछले समय में, विशेषकर 1970 के दशक के मध्य से, पुलिस की व्यावसायिक प्रतिबद्धता एवं नैतिकता में धीरे-धीरे हुए ह्रास पर लिख चुका हूं। ज्यादा गहराई में जाए बिना कहूं तो यह चलन प्रशासनिक ढांचे में राजनेताओं की दखलअंदाजी होने के बाद शुरू हुआ था। पुलिस महकमे के रोजमर्रा के प्रशासनिक कार्यों में भी दखल होने लगा, जिससे शोचनीय अधोगति बनती गई। राजनेताओं ने पाया कि पुलिस महकमे में तमाम स्तरों पर भर्ती और स्थानांतरण करना पैसा बनाने और ताकत पाने का बढ़िया जरिया है। फिर कमजोर नैतिकता वाले पुलिस अफसरों ने जब राजनीतिक आकाओं से सांठगांठ से होने वाले फायदों को भांप लिया तो यह धंधेबाजी चल निकली। समाज के अन्य तबकों ने भी जब यह जान लिया कि ‘पुलिस का भाव’ क्या है, खासकर मुंबई जैसे तेजी से फैलते महानगरों में, तो बड़ी मात्रा में काला धन हाथ बदलने लगा। महानगर मुंबई में पिछले कुछ सालों की घटनाएं कमोबेश मुल्क के अच्छे-बुरे का प्रतिनिधित्व करती हैं-देश की आर्थिक राजधानी होने के नाते मुंबई देश के आर्थिक विकास का अक्स है –लिहाजा आधिकारिक और कालेधन का गढ़ है। कालांतर में, परिदृश्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कालेधन की आमद और तस्करी की शुरुआत होने से नशा व्यापार, आपराधिक अंडरवर्ल्ड, गैंग एवं लॉबियों के फलने-फूलने में पुलिस के अभयदान की अहमियत बढ़ती गई। पहले-पहल तमाम काले धंधों का धन स्रोत लगभग एक ही था। यानी नशीले पदार्थ, फिल्म निर्माण, हवाला धंधा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तस्करी करने को जरूरी पैसा एक जगह से आता था। चूंकि इन गतिविधियों के निर्बाध परिचालन हेतु पुलिस के अभयदान की जरूरत थी, लिहाजा सरगनाओं ने राजनेताओं से सांठगांठ करके कमाई वाली जगहों पर अपने बंदों की नियुक्ति और भर्ती करवाकर पुलिस पर नियंत्रण बनाना शुरू कर दिया। इस तरह राजनेता-अपराधी-पुलिस वाली दुष्ट तिकड़ी का जन्म हुआ और दीगर पुलिस अफसरों में मलाईदार नियुक्तियों के लिए होड़ मचने लगी।
उपरोक्त वर्णित लॉबियां उन लालची पुलिस अफसरों को प्रायोजित करने लगीं जो ‘ऊपर पैसा चढ़ाकर’ कमाई वाली नियुक्ति पाने लगे। चूंकि उन्हें इस अहसान का बदला चुकाना था, परिणामस्वरूप मानक रही मुंबई पुलिस की व्यावसायिक कार्यकुशलता और ईमानदारी को बुरी तरह नुकसान पंहुचा। साल 1992 के मुबंई दंगे, प्रतिकर्मवश 1993 के बम विस्फोट और वर्ष 2008 में हुआ आतंकी हमला, इसी शैतानी गठजोड़ का फल थे। मुंबई पुलिस लगभग तमाम मोर्चों पर विफल रही। आरजी तौर पर किए गए उपाय कभी भी बाकायदा प्रशिक्षण, समन्वित प्रतिक्रिया की जगह नहीं ले सकते, लिहाजा बहुत लोगों की जानें गईं। वक्त रहते न तो विशेष पुलिस दस्ता बनाया गया, न ही विशिष्ट गोपनीय जानकारी पाने के प्रयास हुए और न ही मुश्किलों का पूर्वानुमान लगाकर अभ्यास करवाया गया।
ऊपर मैंने उस शहर का लघु विवरण दिया है जो दिन-रात अत्यधिक व्यस्त रहता है और जिसके पुलिस बल के हाथ अंदरखाते बंधे हुए हैं- ऐसे बल से परमबीर के समर्थन में उतरने की अपेक्षा करते? या फिर खुद परमबीर ने उनके लिए क्या किया? ये सवाल निजी न होकर यक्ष प्रश्न हैं, क्योंकि आज शरद पवार जूलियो रिबेरो जैसे 92 वर्षीय वयोवृद्ध से परमबीर सिंह के ‘पतित कामों’ की जांच करवाने की बात कह रहे हैं। जबकि मुझे विश्वास है कि इस जांच के लिए रिबेरो जितने अन्य काबिल अफसर भी उपलब्ध हैं, हालांकि पुलिस आयुक्त के रूप में रिबेरो जहां कहीं भी नियुक्त रहे, वहां अपने अफसरों और जवानों का काफी ध्यान रखा और आज भी रखते हैं। यह केवल राज्य सरकार और उससे मिले हुए भ्रष्ट अफसर हैं, जिन्होंने पुलिस बल की व्यावसायिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।
कानून-व्यवस्था हालांकि राज्य सरकारों का विषय होता है और पुलिस विभाग पर सूबों का नियंत्रण एक महत्वपूर्ण पहलू होता है, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्यों की इस शक्ति में भी सेंध लगाकर शक्ति अपने हाथ में करने की फिराक में है। पहले यह केवल सीबीआई थी, जिसका संचालन केंद्र सरकार के पास था और जिन गंभीर राजनीतिक अथवा आर्थिक आपराधिक मामलों में उसकी दिलचस्पी होती थी, उनकी जांच इस एजेंसी को सौंपा करती थी। हालांकि इससे राज्यों की पुलिस का मनोबल कमजोर पड़ने लगा और उनकी व्यावसायिक दक्षता में ह्रास हुआ। केंद्र सरकार के हित साधने में सीबीआई वाला यह प्रयोग सफल सिद्ध होने से उत्साहित होकर केंद्रीय गृह मंत्रालय अब इस एजेंसी के अलावा एनआईए, ईडी, कस्टम्स एंड एक्साइज़, नारकोटिक्स ब्यूरो इत्यादि एजेंसियों का इस्तेमाल कर रहा है। अक्सर राज्य सरकार या सूबा पुलिस को जानकारी दिए बिना उनके अधिकार क्षेत्र में किसी केंद्रीय एजेंसी के सैकड़ों कर्मी दर्जनों जगह पर छापा मारते हैं, अगले दिन अखबारों में सैकड़ों-हजार करोड़ का काला धन बरामद होने की सुर्खियां बनती हैं और फिर यह खबर खो जाती है। केंद्र सरकार के अगले निशाने पर छापेमारी की खबर बनने तक, पूर्व वाला प्रसंग बिसरा दिया जाता है।
केंद्रीय एजेसियों द्वारा की जाने वाली ऐसी कार्रवाइयों से राज्य सरकार द्वारा यत्न करके बनाई पुलिस बल की चुस्ती मिट्टी में मिल जाती है और नैराश्य से व्यावसायिक मनोबल कमजोर पड़ता है, क्योंकि लोगों में यह धारणा बनाई जाती है, चूंकि अमुक गलत काम होने देने में राज्य पुलिस की संलिप्तता थी, इसीलिए उचित कार्रवाई करने हेतु दिल्ली से भेजे गए ‘विशेष दूत’ लगाने पड़े। इस अज्ञानता पर कुछ न कहूं तो अच्छा है। हालांकि, नागरिकों की निगाह में केंद्रीय एजेंसियां राज्य पुलिस से कहीं ज्यादा बदतर हैं क्योंकि वे उन्हीं पर छापेमारी करती हैं, जिन्हें केंद्र अपने निशाने पर लेता है और लगभग सारी कार्रवाई वहीं से संचालित है और वास्तव में क्या हुआ, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
इसलिए, निष्कर्ष के तौर पर, सवाल फिर से वही कि परमबीर सिंह आज अकेले क्यों पड़ गए? पत्र लिखते वक्त केवल वही जानते थे कि किन परिस्थितियों में उन्होंने अपनी नियुक्ति स्वीकार की थी। इस पहलू को छोड़ भी दें तो भी वे उस वक्त क्यों खामोश रहे जब गृहमंत्री ने गैरकानूनी उगाही करने की मांग की थी? चूंकि तब तो उन्होंने ‘ओमेर्टा’ (आतंकवादी संगठन का सदस्य पकड़े जाने पर सब कुछ सहकर भी मुंह नहीं खोला) करना चुना था, लिहाजा परिणाम भी भुगतना पड़ेगा। तथापि हम सबको ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि पर्दे के पीछे रहने वाले ‘प्रायोजक’ इसको भी सुलटा लेंगे। वो एक कहावत है न… ‘गॉडफादर हैस कन्सिलियर्स’ अर्थात् ‘सरगना की मंडली में कांड दफन करने वाले शातिर होते हैं।’
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।