ज्ञाानेन्द्र रावत
देश की आजादी के सर्वशक्तिमान नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को देश के राजनीतिक क्षितिज से ही नहीं बल्कि दुनिया से गए 75 बरस से अधिक हो चुके हैं लेकिन भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का इतिहास उनकी राजनीतिक क्रियाविधि के उल्लेख के बिना अधूरा ही रहेगा। 1921 में राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश के बाद वैसे तो देश में वह बीस बरस रहे लेकिन इस दौरान उन्होंने पांच बरस से अधिक यानी 1933 से 1938 के बीच का समय यूरोप प्रवास में ही काटा। शेष पंद्रह बरस में भी वह ग्यारह बार कारावास में रहे। कारण बरतानिया हुकूमत उन्हें सबसे खतरनाक व्यक्ति मानती थी।
यदि सफलता का मापदंड केवल लक्ष्य प्राप्ति ही है तो सुभाष चंद्र बोस विशुद्ध रूप से असफल क्रांतिकारी ही कहे जायेंगे। कारण उनका महान संकल्प मातृभूमि की आजादी का साक्षी नहीं हो सका। लेकिन जब जनता में आजादी की भावना जागृत करने की बात आती है तो निश्चय ही उन्होंने एकनिष्ठ लक्ष्य के निमित्त अपने त्याग और बलिदान से इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी है। उन्होंने एक ओर देश की जनता को सार्वजनिक आंदोलन की ओर उन्मुख किया, वहीं दूसरी ओर बरतानिया हुकूमत के खिलाफ विरोध और विद्रोह की भावना भी प्रज्ज्वलित करने में महती भूमिका का निर्वहन किया।
उनका मानना था कि गांधीजी के सत्याग्रह के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति की संभावना मात्र एक सपना है। उनके अनुसार सशक्त क्रांति के बिना देश की आजादी हासिल कर पाना पूर्णतः असंभव है। यह बात दीगर है कि वह गांधीजी के विरोध के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर निर्वाचित भी हुए। वर्ष 1939 में परिस्थितिवश कांग्रेस से उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। उस समय उनके समक्ष दो ही विकल्प थे। गांधीवादी विचारधारा के अनुसार आंदोलन की स्वीकार्यता या बरतानिया हुकूमत की जेल में सदा-सदा के लिए कैद रहना। जब उन्होंने यह समझ लिया कि अहिंसा के रास्ते चलकर आजादी हासिल नहीं हो सकती तोे उन्होंने न केवल देश छोड़ा बल्कि जर्मन व जापानी मित्रों के सहयोग से भारतीय शक्तियों को संगठित कर ‘आजाद हिंद फौज’ की स्थापना की।
उन्होंने जर्मनी में आजाद हिन्द संघ, आजाद हिन्द फौज और आर जी हुकूमते आजाद हिन्द के गठन में अनेक कठिनाइयों के बावजूद हिम्मत नहीं हारी। भले ही जापान के सहयोग-समर्थन से उनकी आजाद हिंद फौज बर्मा के मोर्चे पर बरतानिया हुकूमत की फौजों से लोहा न ले सकी लेकिन आजादी की लड़ाई में उनका और उनके हजारों वीर सैनिकों के अकथनीय योगदान पर हरेक देशवासी को गर्व है। यहां इस बात पर भी मतभेद हो सकते हैं कि यदि उस समय हिटलर-तोजो-मुसोलिनी की तिकड़ी कामयाब हो जाती तो क्या हिंदुस्तान की संप्रुभता सुरक्षित रह पाती? लेकिन बिना शक इस बात को कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर नेताजी किसी भी कीमत पर जर्मनी या जापान के आगे नतमस्तक न होते।
गांधीजी के शब्दों में ‘वे अप्रतिरोध थे। अपने कर्म के प्रति उनमें चेतना और अद्वितीय कर्मठता थी।’ आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के साथ व्यवहार में उनकी सहृदयता का परिचय मिलता है। उन्होंने 10 जून, 1933 को लंदन में भारतीय राजनीति पर आयोजित कानफ्रेंस में स्पष्टतः घोषणा की थी कि स्वतंत्र भारत पूंजीपति, जमींदार और जातिभेद का धरातल नहीं बनेगा। देश में बढ़ते सांप्रदायिक भाव से वह संत्रस्त थे। सिंगापुर में चेट्टियार मंदिर की घटना इसका जीवंत प्रमाण है। वहां के महंत के दशहरा उत्सव के आमंत्रण को उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया था कि आपके मंदिर में अन्य हिन्दू जातियों तक का प्रवेश निषिद्ध है। मैं वहां कदापि नहीं आऊंगा।
नेताजी प्रख्यात बांग्ला लेखक, साहित्यकार एवं उपन्यासकार शरत चन्द्र से बहुत प्रभावित थे, बल्कि उनका बहुत सम्मान करते थे। शरतजी की बात उनके दिलोदिमाग में बैठ गई थी कि जब भीख मांगकर पेट भरना संभव नहीं, तब भीख मांगकर स्वतंत्रता प्राप्त करना कहां तक संभव है? यह सच है कि सुभाष बाबू भी रास बिहारी बोस, मौलाना बरकत उल्लाह खान की तरह एक बार देश की आजादी और उसके लिए अपना सर्वस्व होम करने का सपना लेकर देश से बाहर जाने के बाद फिर दोबारा देश वापस नहीं लौट सके और शरतजी का सपना भी वह खुद साकार नहीं कर सके। यह भी कि देश की सत्ता पर काबिज नेतृत्व उनका मूल्यांकन करने में नाकाम रहा लेकिन देश की जनता ने उनका मूल्यांकन जरूर किया और उन्हें यथोचित सम्मान भी दिया।
एस. राधाकृष्णन के शब्दों में—उनका निर्भीक साहस, समर्पण, कष्ट और त्याग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गाथा का अंश बन चुका है। भावी पीढ़ी उनकी प्रेरक जीवनी को गर्व और श्रद्धा से पढ़ेगी और उनको महान योद्धा के रूप में प्रणाम करेगी, जिन्होंने भारत के नवप्रभात का संदेश दिया था।