गुरबचन जगत
पिछले दिनों मुझे इंटेलीजेंस ब्यूरो से सेवानिवृत्त हुए एक मित्र से ‘भारत की आंतरिक सुरक्षा पर अंदरूनी पहलुओं का प्रभाव’ नामक परिचर्चा में शामिल होने का अनौपचारिक निमंत्रण मिला। तत्पश्चात आयोजक ‘पुणे इंटरनेशनल केंद्र’ के डॉ. माशेलकर (अध्यक्ष), डॉ. केलकर (उपाध्यक्ष) और समन्वयक ले. जनरल पाटनकर (अ.प्रा.) की ओर से औपचारिक निमंत्रण प्राप्त हुआ। जम्मू-कश्मीर में बतौर पुलिस महानिदेशक मेरे कार्यकाल में जनरल पाटनकर वहां डिवीज़न कमांडर थे। वे उन बेहतरीन सेना अधिकारियों में एक हैं जिनसे आज तक मैं मिला हूंndash; पूर्णरूपेण पेशेवर एवं भद्रपुरुष। अपनी सेवानिवृत्ति उपरांत मैंने एक तरह से कसम ले रखी थी कि टीवी चैनलों या किसी सेमिनार की पैनल चर्चा में भाग नहीं लूंगा। तथापि इस निमंत्रण ने मेरे दिल में हूक उठा दी और कुछ गहरे दबी भावनाएं जगा दीं क्योंकि 1940-50 के दशक में मेरी अधिकांश स्कूली पढ़ाई पूना (आजकल का पुणे) में हुई है ndash; एक तो बचपन ने मुझे खींच लिया, उतना ही महत्वपूर्ण रहा इसमें भाग लेने वाली गणमान्य शख्सियतें।
हालांकि यात्रा में खपने वाले समय को लेकर मैं कुछ असहज था क्योंकि मैं उम्र के आठ दशक पार कर चुका हूं और अगला हवाई जहाज पकड़ने के लिए बीच में दिल्ली में घंटों का अंतराल काटना था। आखिरकार मैंने सपत्नीक जाने का फैसला ले लिया। हम पुणे हवाई अड्डे पर उतरे और होटल पहुंचे। रास्ते में किरण (मेरी पत्नी) ने सड़कों की हालत, ट्रैफिक और ऊंचे-ऊंचे भवनों पर खीझना शुरू कर दिया ndash; यह था तो सच लेकिन हर वह सांस जो मैं आत्मसात कर रहा था, अंदर से मुझे प्रफुल्लित कर रही थी और मराठी भाषा के शब्द भी। मुझे कहीं भी कुछ गलत नज़र नहीं आ रहा था क्योंकि बचपन के गुलाबी-चश्मे से जो देख रहा थाndash; पुराने परिदृश्य की तलब में, जो कभी था, पर अंदरूनी तसव्वुर के सिवा अब चीज़ें बदली-बदली दिखाई दे रही थीं और अनजानी सी थीं।
परिचर्चा पूरे दिन चलती थी, लेकिन अधिकांश समय इसने बांधे रखा। प्रतिभागी विभिन्न क्षेत्रों से थे ndash; खुफिया विभाग, पुलिस, सेना, वायुसेना, विदेश सेवा, निजी क्षेत्र और गैर-सरकारी संगठनों से। यह कायदे से चुनकर बुलाए प्रतिभागियों का सम्मेलन था और बहुत उद्देश्यपूर्ण, इसमें कुछ विभागीय परिपाटी की आलोचना की गई तो भविष्य के लिए समझदारी भरे सुझाव भी आए। प्रश्न-उत्तर सत्र बहुत तीखा और भेदक था। आज इनकी तफ्सील में न जाकर केवल ‘पूना’ इस लेख का मुख्य विषय है।
सत्र का आखिरी दिन लगभग पूरा खाली था और हम सेंट विंसेंट हाई स्कूल की ओर चल निकले, जहां से मैंने नौवीं कक्षा तक पढ़ाई की थी (इससे पहले प्राथमिक पढ़ाई हचिंग्स गर्ल्स स्कूल में हुई थी)। जैसे ही हमारी कार जीपीएस की मदद से स्कूल की ओर बढ़ने लगी, मैं सड़क किनारे पुराने वक्त की निशानियां और भवन ढूंढ़ने की कोशिश करने लगा, जिन सड़कों पर कभी साइकिल से आया-जाया करता था। बहुत मुश्किल से चंद मोड़ और घुमावों को पहचान पाया लेकिन सब तरफ सीमेंट और स्टील के नए भवन उग आए थे, जो हर पुरानी याद को अनजाना बना रहे थे ndash; वह हिंदुस्तान बुक शॉप, जहां से हम स्टेशनरी और किताबें खरीदते थे, वह बोहरा शॉप, अब नज़र नहीं आईं। टाइल वाले झोंपड़ीनुमा घरों को फ्लैट्स की बाढ़ बहा चुकी है। मेरा दिल उदास हो चला और सोचने लगा कि किरण ठीक ही तो कह रही है।
लेकिन तब जादू सा हुआ, जब हम ऐन स्कूल के सामने पहुंचे और मानो समय ठहर गया हो ndash; सामने वही पुराना भवन का माथा और बगल के भवन, जो 1956 में स्कूल छोड़ते वक्त थे। शहर में जो देखकर आया, सबके बीच मेरा प्रकाश-पुंज अपने पुराने स्वरूप में खड़ा था ndash; वह चिरस्थाई अहसास, प्रकाश एंव आलोक का स्रोत, जो ताजिंदगी बना रहा। सामने के भवन के ऊपर जीसस क्राइस्ट की मूर्ति और स्कूल का प्रतीक-चिन्ह वैसे ही थे। मेरा दिल किया कि इस आभामय धरती को झुककर सजदा करूं। लॉन पहले से कुछ अलग नज़र आया लेकिन जैसे ही पायदान चढ़कर बरामदे में पहुंचे तो सामने वही जानी-पहचानी सीढ़ियां और कक्षाएं थीं। मैं अलग दुनिया और काल में विचरने लगा। इतवार की छुट्टी की वजह से विशाल लॉन, भवन, खेल का मैदान खाली था। चौकीदार को हैरानी हुई जब मैंने ‘1956’ का जिक्र किया। मुझे याद है कि जब स्कूल लगा होता था तब भी पढ़ाई के वक्त कक्षाओं के बाहर ठीक ऐसी ही शांति हुआ करती थी।
बरामदा और भवन अब भी दाग रहित साफ-सुथरे थे। जल्द ही हम कक्षा 8वीं बी के सामने थे। यह वही कमरा था और वही कक्षा, जहां मैं बैठता था। हैरानी से भी ज्यादा हैरानी यह कि डेस्क और दो छात्रों के बैठने लायक बेंच आज भी वही थे, जिन पर बच्चों द्वारा उकेरे निशान तक दिखाई दे रहे थेndash; मूलतः वही, किंतु शायद मरम्मत और पुनरुद्धार किए हुए।
वहां खड़े हुए मुझे इस कक्षा में घटित एक किस्सा याद हो आया। श्रीमान लोबो हमारे गणित अध्यापक थे, असल सख्तमिजाज़… और पेशानी पर सदा बल रहता। वे दिन ब्लैकबोर्ड वाले थे और वे चॉक से कुछ लिख रहे थे और पीठ छात्रों की तरफ थी। एक शरारती छात्र ने कांच की नलिका में कुछ रखकर, फूंक मार उनकी पीठ को निशाना बनाया। बिलबिलाए श्रीमान लोबो मुड़े और ऐसा करने वाले को ढूंढ़ने लगे, लेकिन नलिका से सफाई से निजात पाई जा चुकी थी। मास्टर जी ने कहा कि अपराधी स्वयं खड़ा हो जाएndash; कोई नहीं हुआ। तब उन्होंने अन्य छात्रों से अपराधी की पहचान करने को करनाndash; फिर शांति। वह दिन का आखिरी पढ़ाई घंटा था और उसके बाद खेल-कूद का अनिवार्य पीरियड था। श्री लोबो ने तय किया कि जब तक मामला हल नहीं हो जाता तब तक न तो कोई खेल मैदान जाएगा न ही घर। कुछ घंटों बाद, प्रिंसिपल फादर रेह्म, अचानक वहां से गुज़रे, सो दरियाफ्त किया। मामला जानने के बाद वे अपनी राह चले गए। लेकिन जब समय पर घर न पहुंचने पर चिंतित अभिभावक पूछताछ के लिए स्कूल पहुंचने शुरू हुए तो श्री लोबो को नर्म पड़ना पड़ा, लेकिन फटकार का एक और दौर हमें भुगतना पड़ा!
अब हम 7वीं बी कक्षा के सामने खड़े थे, जिसके बाहर मेरी एकमात्र स्कूली लड़ाई हुई थी। सुश्री फर्नांडीज हमारी टीचर थीं और मेरा सबसे प्रिय दोस्त अब्दुल कादिर बेंच मेट भी था। उसको खलील नाम के लड़के से बहुत खुंदक थी और वह उसको सबक सिखाने के लिए मुझे अक्सर उकसाया करता। जैसे ही कक्षा खत्म हुई और हम बाहर आए, मैंने खलील को मुक्का जड़ दिया, कुछ लात-घूंसे भी चल निकले। सुश्री फर्नांडीज़ भागती हुई आईं और हमारी लड़ाई रुकवाई, वे मेरे इस व्यवहार से हैरान थीं क्योंकि इससे पहले मार-धाड़ की ओर मेरा झुकाव कभी नहीं रहा। अलबत्ता उन्होंने यह घटना प्रिंसिपल के ध्यानार्थ नहीं लाई और मैं बेंत से पिटने से बच गया!
अलबत्ता हम सीढ़ियां नहीं चढ़ पाए, जहां मेरी छठी कक्षा थी और सुश्री गोम्ज़ हमारी अध्यापिका थीं। मुझे याद हो आया कि हमें ‘बुद्धि और बुद्धिमत्ता’ पर निबंध लिखने को कहा गया था। मेरा निबंध सबसे बढ़िया रहा और पूरी क्लास को पढ़कर सुनाया गयाndash; पाठकगण कृप्या मेरी इस शेखी को क्षमा करें!
साइकिल स्टैंड से होते हुए हम खाली जगह पहुंचे जहां पर टक-शॉप हुआ करती थी। खेल का मैदान बहुत सुरूचिपूर्ण ढंग से व्यवस्थित था और एक नया स्टेडियम बन चुका था, नर्सरी कक्षाओं के लिए नया भवन भी। परिसर के अंदर रिहायशी ब्लॉक, जहां फादर और ब्रदर्स रहा करते थे, आज भी वैसा ही था ndash; प्रवेश निषेध क्षेत्र।
मुझे फादर रेह्म, फादर हेफले, फादर होब्लर, फादर क्लीमेंट याद हैं। अधिकांश स्विस या जर्मन थे। मुझे एक पिकनिक भी याद है, जब झील पर गए और फादर होब्लर वहां तैरने लगे। उन्होंने मुझे भी तैरने को कहा, लेकिन बतौर एक जर्मन उन्हें हैरानी हुई कि मुझे तैरना नहीं आता। अगले दिन वे मुझे स्विमिंग पूल लेकर गए, तीन-चार दिनों में मैं तैर रहा था! अध्यापकों की छात्रों के प्रति इस कदर प्रतिबद्धता थी। हमने बहुत सारी पिकनिक मनाईं और पूना के आसपास के लगभग सारे किलों को जाना। जब पिम्परी में पहली फैक्टरी लगी तो हमें दिखाने ले जाया गयाndash; आज पूना एक घना औद्योगिक शहर बन चुका है। पूना में नेशनल डिफेंस एकेडमी तब भी थी और छुट्टी के दिन कैडेट्स को नीले-ग्रे कॉम्बिनेशन सूट में देखते तो हमें बहुत जलन होती।
यहां मैं एक बात का जिक्र करना चाहूंगा जो आजकल एक गर्मागर्म विषय है ndash; धर्म परिवर्तन। अपने तमाम स्कूली काल में हमें स्कूल परिसर में बने गिरजाघर में जाने के लिए कभी प्रेरित नहीं किया गया और सुबह की प्रार्थना भी धर्म-निरपेक्ष थी। एक बार भी किसी के मन में, यहां तक कि अपरोक्ष भाव से भी, इस बारे में संशय नहीं आया। मेरी पत्नी स्वयं लखनऊ के लोरेटो कान्वेंट स्कूल से पढ़ी हैं ndash; वहां के लिए भी यही बात सच है। हो सकता है कि उत्तर-पूरबी राज्यों या जनजातीय क्षेत्र में यह कहीं होता हो, लेकिन उन कॉन्वेंट स्कूलों में कभी नहीं, जहां से हम में से अधिकांश पढ़े हैं।
अब समय हो चला विदा लेने का, उन पुरानी यादों के सफर से निकल कर फिर से वर्तमान काल की हकीकत में लौटने का। इस विद्यालय ने मुझे सिखाया-पढ़ाया और वह ज्ञान और बुद्धिमत्ता प्रदान की जिसके सहारे मैं जिंदगी की चुनौतियों से लड़ पाया। इसने मुझे वह मूल्य दिए जो समय के साथ और दृढ़ होते चले गए और जीवन रूपी आंच की भट्ठी में तपने योग्य बनाया। खुशी या ग़म की घड़ियों में, इन्होंने मुझे जिंदगानी के तमाम उतार-चढ़ावों के असर से एक सुरक्षा आवरण की तरह बचाया है। कामना है कि सेंट विन्सेंट से पढ़कर निकलने वाली हरेक पीढ़ी इसी प्रकार सशक्त बने और अपनी मातृ-शिक्षा संस्था के प्रति शुक्रगुज़ार रहे।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।