हाल ही में देश के कई हिस्सों में तापमान रिकॉर्ड स्तर छू गया, खासकर उत्तर-पूरबी, मध्य और पूरबी भारत में। इस ताप लहर से कुछ जिलों में दिन का तापमान कई दफा 45 से 50 डिग्री के बीच रहा। उत्तर-पूरब और मध्य भारत में भीषण गर्मी कोई नई बात नहीं है लेकिन शुरुआती दिनों में ही मौसम का लंबे समय तक शुष्क बने रहना और तापमान में अप्रत्याशित भारी उछाल अनहोनी है। मानसून आने में अभी कुछ हफ्ते बाकी हैं, लिहाजा आगे भी देश में तीखी गर्मी और ताप-लहरें बनने का पूरा अंदेशा है।
गर्मी की रौद्रता से बिजली की मांग में भारी बढ़ोतरी हुई, उत्पादन में फर्क ने बहुत से सूबों में पॉवर कट के हालात पैदा कर दिए। इसके पीछे ताप बिजली घरों को कोयला आपूर्ति में कमी बताई जा रही है। जहां महानगरों में मांग के अनुसार कूलर, एयर कंडीश्नर कम पड़ गए, वहीं छोटे शहरों-कस्बों में पानी की तंगी की खबरें चलीं। इस बार देखी गई अलग किस्म की गर्मी को पिछले सालों जैसी मानना ठीक नहीं होगा। चरम तापमान मानव स्वास्थ्य, पशु-पक्षी, कृषि और कारोबार के लिए भी घातक होता है। इससे निपटने के लिए एक ढांचागत कार्यक्रम नीति बनाने की जरूरत है।
पहले कदम में, विद्यमान और उभरती वैज्ञानिक सहमतियों के रूप में विज्ञान को स्वीकार करना होना चाहिए। पर्यावरण बदलाव पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) दुनिया के तमाम इलाकों में ताप लहरों की संख्या और तीव्रता में वृद्धि होने के अलावा ग्रीष्म ऋतु लंबी खिंचने एवं सर्दी छोटी होने के बारे में लगातार चेतावनी देता आया है। अगस्त 2021 में आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में चेताया था कि वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से बनी भीषण गर्मी की तीव्रता अक्सर मानवीय शरीर और कृषि की सहन योग्य क्षमता के आसपास बनी रहेगी। हालांकि तटीय क्षेत्रों के तापमान में वृद्धि इस कदर नहीं होगी लेकिन समुद्री जलधाराओं के तापमान में होते बदलावों से मानव और उसकी समुद्रीय आजीविका प्रभावित होंगे। सागरीय ताप-तंत्र में बदलावों के फलस्वरूप समुद्री जल की अम्लता बढ़ेगी और ऑक्सीजन स्तर घटेगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट, जो असल में विभिन्न देशों में उपलब्ध सबूतों का संयुक्त प्रारूप है, इसमें चेताया गया है कि जिन शहरी इलाकों में पहले से ‘गर्म टापू’ सरीखे हालात रहते हैं वहां तापमान वृद्धि विकराल हो सकती है।
इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज एसेस्मेंट के मुताबिक भूमि-सतह पर वायु तापमान के वार्षिक औसत में 1.7 से 2 डिग्री की वृद्धि होने पर भारत में ऊपर बताए सभी प्रभाव महसूस किए जाएंगे। मौसम अंतर से असर और ताप-चरमता सहित इसके अनेकानेक रूप अब एकदम साफ दिख रहे हैं। प्रत्येक ताप लहर के लिए जिम्मेवार पर्यावरण बदलावों को समझने के लिए हमें ‘कारण बोध विज्ञान’ विधा को और विकसित करना होगा, लेकिन आम चलन में तापमान तीव्रता और बढ़ती आवर्ति को मानव निर्मित बदलावों से जोड़ा जाता है।
दूसरा कदम, ताप-लहर के विपरीत प्रभावों का जोखिम जिस जनसंख्या को पहले है, उसकी शिनाख्त करनी है ताकि एहतियाती उपाय शुरू हो सकें। इस किस्म का आकलन पर्यावरणीय बदलावों को लेकर तैयार हो रही बृहद जोखिम आकलन रिपोर्ट का हिस्सा है। ताप लहरों की समस्या अब हकीकत है और मौजूदा समय में है, इसलिए सबसे ज्यादा प्रभावित सूबों और जिलों का ‘जोखिम आकलन अध्ययन’ तरजीह पर करने की जरूरत है।
इसका मूल प्रारूप पहले से जारी रही कुछ परियोजनाओं जैसा ही है। उदाहरणार्थ, ओडिशा में आईआईपीसी द्वारा किए एक अध्ययन में पाया गया है कि मलिन बस्तियों में रहने वालों को जोखिम सबसे अधिक है, जो उनके घरों की बनावट, गर्म होने वाली छत्त (टीन या एस्बेस्ट्स), एक ही कमरे में कई जन, बिजली आपूर्ति एवं पानी पर्याप्त न होने की वजह से है। ताप पर आईआईपीएच-गांधीनगर का एक पूर्व अध्ययन इस विषय पर देशव्यापी जोखिम आकलन अध्ययन करवाने की जरूरत को बल देता है। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक निष्कर्ष है कि देश के कुल 640 जिलों में 10 बहुत अधिक जोखिम वाली श्रेणी में आते हैं, जबकि अन्य 97 जिले उच्च-जोखिम श्रेणी में हैं। इनमें अधिकांश मध्य भारत के हैं।
मानव बस्तियों में जोखिम आकलन सर्वे में बाहरी तापमान निर्धारण में वहां की भौगोलिक स्थिति, हरियाली, वायु-गति इत्यादि गिने जाते हैं तो अंदरूनी तापमान के लिए वायु-संचार और छत्त की संरचना जैसे अवयव। शहरों के अंदर भी, कुछ इलाके बाकियों से अधिक जोखिम वाले हो सकते हैं। खतरा कम करने के लिए ऐसे तमाम ‘गर्म-बिंदुओं’ की शिनाख्त करना जरूरी है। समाज के विभिन्न वर्गों में भी कुछ तबकों को जोखिम अधिक है लेकिन गरीब किसी भी वर्ग का हो उसे ज्यादा खतरा है। यह केवल मनुष्य नहीं है जिसे ताप का प्रकोप सहना पड़ता है, फसलें और पशुधन भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। बदलते तापमान का कृषि उत्पादन पर असर का अध्ययन करने के लिए कुछ वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। बढ़ती गर्मी दुग्ध उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव डाल रही है।
चरम तापीय स्थिति से निपटने हेतु अब तक की नीतिगत प्रतिक्रिया टुकड़ों में और लघु-कालीन रही है। पिछले लगभग 15 सालों से मौसम बदलावों पर जो राष्ट्रीय और सूबाई कार्य योजनाएं हैं, वे सरसरी तौर पर चरमता का जिक्र बतौर एक चुनौती करती तो हैं लेकिन ऐसी साधारण योजनाओं पर अमल बहुत कम रहा। चंद नगर निगमों ने ताप लहर-कार्य योजना बनाने का काम शुरू किया भी परंतु इन पर क्रियान्वयन बहुत धीमा है। पिछले साल स्वास्थ्य मंत्रालय ने ताप-संबंधी बीमारियों पर एक राष्ट्रीय कार्य योजना उलीकी है। राज्य सरकारों को ताप-संबंधित बीमारियों का लेखा-जोखा रखने और इसको आगे एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम केंद्र तक प्रेषित करने के निर्देश हैं। तथापि ताप प्रबंधन पर दो अलग योजनाओं को जोड़ने वाला लचीलापन होना या फिर मध्य एव दीर्घकालीन राष्ट्रीय ताप कार्य योजनाओं का अभाव है। ताप लहर का प्रभाव घटाने के लिए हमें नई तकनीक एवं उपाय करने वाला मार्गदर्शक मानचित्र बनाने की भी जरूरत है।
हमें ताप-लहरों का पूर्वानुमान एवं आसान भाषा और प्रारूप में जन-चेतावनी प्रेषित करने की आवश्यकता है। भीषण गर्मी से बचाव के लिए आम नागरिकों और कुछ विशेष उद्योग आधारित क्षेत्र जैसे कि निर्माण कार्य, ग्रामीण रोजगार और शिक्षा संस्थानों में काम करने वाले क्या करें या नहीं इसकी सूची सरकारी एजेंसियां संचार साधनों से लोगों तक पहुंचाएं। कुछ आसान उपाय, जैसे कि छत्त पेंट करना या बनाने में ताप-रोधक सामग्री लगाना, आरपार हवा के लिए खिड़की का प्रावधान इत्यादि अंदरूनी तापमान कम कर सकते हैं। स्थानीय समूह और सिविल सोसायटी को साथ जोड़कर इन उपायों पर अमल करवाना दूरगामी होगा। ताप लहर के प्रभाव को घटाने का हल पर्यावरण संरक्षण उपायों से जुड़ा है जैसे कि ऊर्जा का किफायती उपयोग, शहरी विकास योजना, यंत्रों की ऊर्जा कार्यकुशलता, पर्यावरण मित्र वास्तुकला और कृषि को बदलते मौसम में ढालना इत्यादि।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के माहिर हैं।