जब आपदा केवल एक क्षेत्र अथवा देश तक ही सीमित न रहे, बल्कि विश्वव्यापी हो जाये, तो एेसा अघटनीय घटता है, जिस पर पहले विश्वास नहीं होता। फिर यह मानवीय त्रासदी न केवल इनसान को इस ब्रह्माण्ड में उसकी असल जगह बता देती है, बल्कि उसमें विपरीत परिस्थितियों में जिन्दा रहने की एक अजब ललक और एक साहस भी भर देती है।
पिछले छह महीनों से यही सब विश्व में हो रहा है। संक्रमण चाहे चीन में वुहान से शुरू हुआ हो, या कहीं और से, कोरोना ने पूरा विश्व हिला दिया। दुनियाभर के देश इसकी गिरफ्त में आ गये। भारत का कोई कोना इससे नहीं बचा, लाखों लोग इस महामारी से संक्रमित हो गये, हजारों लोग काल के ग्रास हो गये। शुरू में कुछ सौ लोग इससे संक्रमित होते तो लोग चौंक उठते थे। अब प्रतिदिन पचास हजार के करीब लोग इस व्याधि से संक्रमित हो रहे हैं, तो लोगों को इस व्याधि के साथ जीना सीखने का संदेश दिया जा रहा है।
पूर्णबन्दी के चार चरणों में जब सामाजिक अन्तर रखने के नाम पर आदमी अपने परिवेश की पहचान खो रहा था, देखते ही देखते उसके रोजी-रोजगार रसातल में चले गये। देश के करोड़ों प्रवासी कामगारों को इस व्याधि के भय ने बेरोजगार बना निहत्था बना दिया। पिछले कई दशकों से औद्योगिक विकास, व्यापारिक आधुनिकीकरण के नाम पर भारत जैसे कृषक देश में खेतीबाड़ी एक जीने का ढंग नहीं, मात्र एक धंधा बनकर रह गयी थी। इसमें घाटे -लाभ की गणना शुरू हो गयी तो देश भर के महानगरों की ओर से इन असंख्य गांवों से महानिष्क्रमण शुरू हो गया। बेहतर जिंदगी और काम की तलाश में लगभग सवा करोड़ कामगार प्रतिवर्ष इन महानगरों की ओर चल दिये। उम्मीदों का कोई अन्त नहीं होता। शहरों में मंदी और तालाबंदी के आसारों ने उनमें से बहुतों को एक स्वप्निल जिंदगी जीने की तलाश में विदेशों की ओर उड़ान भरने के लिए भी मजबूर किया। वैधानिक रूप से जाना नहीं हुआ तो देश में कबूतरबाजों की एक नयी जमात उभर आयी। उनके गैरकानूनी पंखों पर सवार होकर सपने बुनती युवा पीढ़ी कुछ तेल उत्पाद देशों की ओर निकल गयी और कुछ ने डालर या पाउंड क्षेत्रों की राह पकड़ी, पंजाब और हरियाणा के गांवों के गांव नौजवानों से खाली हो गये। देश के हर शहर में कुकरमुत्तों की तरह उग आयी अकादमियां इन नौजवानों को एक सपना बेच रही थीं।
लेकिन यह कैसा अघटनीय घट गया, कोरोना वायरस का प्रकोप कुछ इस प्रकार की विश्वव्यापी आपदा बना कि इसने आज तक देखे जा रहे बेहतर जिंदगी के सब स्वप्न ध्वस्त कर िदये। रहस्यमय विषाणु से फैली संक्रामक और मारक बीमारी, जिसकी कोई औषधि नहीं, देखते ही देखते इसके भयबोध ने लोगों की सारी सोच और समझ बदल डाली। भौतिकता की पूजा एक अर्थहीन संकल्प लगने लगी।
तब ‘जान है तो जहान है’, यह नारा केवल भारत में ही नहीं गूंजा, पूरे विश्व की मानव जाति इसी पसोपेश में पड़ गयी। पराये देश जो कभी भारतीयों को स्वप्न से सुन्दर लगते थे, अब उन प्रवासियों को मौत का पैगाम लगने लगे। व्याधि से प्रकम्पित आर्थिक निष्िक्रयता ने न केवल तेल उत्पादक देशों की लुटिया ही डुबोई बल्कि दुनिया भर के सुपर देशों के आर्थिक ढांचे भी डगमगा दिये।
विदेशों में बसे भारतीय बेहतर जिंदगी की तलाश को अर्थहीन या अपनी मातृभूमि की ओर लौटने लगे। देश के महानगरों का उद्योग, व्यवस्ााय, पर्यटन और सेवा क्षेत्र भी भयावह पूर्णबन्दी ने निस्पन्द कर दिया। अब इनमें या विदेशों में बसे करोड़ों कामगार अपने देश और अपनी मिट्टी की ओर लौटने लगे, क्योंकि उनके लिए अब सर्वोपरि हो गया, ‘जान है तो जहान है।’
लेकिन जिन्हें छोड़कर गये, वे गांव घर आजादी के इन तिहत्तर वर्षों के बाद भी उन्हें अपने सपनों के भावनावशेष नजर आये। यह सही है कि उन्हें अब कहा गया कि अगर जीना है तो मनरेगा कार्ड साल में एक सौ साठ दिन तुम्हें न्यूनतम भुगतान के साथ जीने का जरिया देंगे, या फिर पचास हजार करोड़ रुपये की वह सरकारी अनुकम्पा की घोषणा, जो उन्हें उनके ग्रामीण परिवेश में उन्हें वैकल्पिक जिंदगी जीने का वचन दे रही थी।
लेकिन समस्या बड़ी थी, और अनुकम्पा छोटी। उधर देश के भाग्य नियन्ता भी केवल जान बचाने ही नहीं, ‘जान के साथ जहान’ बचाने के लिए चिंतित हो उठे। बीस लाख करोड़ रुपये की सरकारी अनुकम्पा राशि और रिजर्व बैंक द्वारा घोषित उदार मौद्रिक साख नीतियां अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की घोषणा कर रही थीं। तेरह करोड़ में से दस करोड़ कामगार शहरों और विदेशों से पलायन करके अपनी जानी-पहचानी ग्रामीण व्यवस्था में आ गये थे।
अब अनलाॅक के पहले चरण के बाद तीसरा चरण शुरू हो गया। शहरों में काम-धंधा शुरू होने के संदेश आने लगे। अब क्या वे फिर इन शहरों की ओर लौटें? अपने गांवों से पुन: पलायन का सिलसिला शुरू करें, जहां कभी उनकी बेहतर जिंदगी के सपनों को दीमक लग गयी थी?
लेकिन आर्थिक प्रगति के आंकड़े बता रहे थे कि कोरोना महामारी में लाॅकडाउन के इन चार चरणों में आर्थिक विकास दर में 2011-12 की कीमतों पर पांच-छह प्रतिशत गिरावट आ गयी थी। अनलाॅक के दो चरणों में संक्रमण दर और बढ़ी, तो अब विकास दर और गिर जाने की संभावना पैदा हो गयी। महामारी के इस असंतुलन के कारण देश के कुल तेरह उपक्रमों में से कृषि और उसके जुड़े उपक्रम कुछ प्रतिशत विकास की गति दिखाते रहे, शेष छोटे-बड़े औद्योगिक क्षेत्र शून्य की तलहटी छू रहे थे।
वैकल्पिक सोच यही है कि क्यों न कृषि प्रधान भारत को उसकी मूल जड़ों की ओर लौटाया जाये। कृषि प्रधान भारत उधार के औद्योगिकीकरण और विदेशी निवेश की बैसािखयों से चलने के प्रयास की बजाय उस सत्य की पहचान करे कि इस महासंकट में भी हमारी भूमि ने रिकार्ड गेहूं की फसल दी, असंख्य लोगों को भुखमरी से बचाया और अब खरीफ का सत्र शुरू होने पर रिकार्ड स्तर पर धान बीज रहा है।
इसके साथ पंजाब और हरियाणा की कपास बैल्टें भी अपनी सार्थकता जता रही हैं। अपने मूल की ओर लौटकर आये को प्रोत्साहन दिया जाये। उधार के पंख किसी काम के नहीं होते। महात्मा गांधी का आर्थिक चिन्तन भी तो लघु और कुटीर उद्योग के विकास से स्वावलम्बन की बात कहता था। क्या यह समय नहीं आ गया कि भारत की ग्रामीण युवा पीढ़ी को पलायन के पंख देने की बजाय अपनी धरती पर ही बसे लघु और कुटीर उद्योगों के जीवनदान का संदेश दिया जाये? शहरी उद्योग जीवित रहें, लेकिन इस नई आर्थिक क्रांति के उत्कर्ष के रूप में। कोरोना की महामारी अगर भारत की उखड़ी हुई जनता को आर्थिक स्वावलंबन का संदेश दे सके तो उससे बेहतर बात भला और क्या होगी?
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।