अनूप भटनागर
न्यायपालिका ने पुलिस और न्यायिक हिरासत में होने वाली मौत की घटनाओं पर हमेशा ही कड़ा रुख अपनाया है। उसका मानना है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने की आजादी का मौलिक अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है और थानों में इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। न्यायपालिका ने समय-समय पर कई आदेश और निर्देश दिये हैं। इनमें जेलों और थानों में सीसीटीवी लगाना भी शामिल है। इसके बावजूद हिरासत में मौत की खबर अक्सर सुनने को मिल ही जाती है।
आमतौर पर बताया जाता है कि आरोपी ने आत्महत्या कर ली। कई बार आरोपी की तबियत अचानक बिगड़ने पर उसे अस्पताल ले जाने पर डाक्टरों द्वारा मृत घोषित किये जाने का दावा किया जाता है।
आखिर सवाल है कि आरोपियों की जामा तलाशी लिये जाने के बावजूद हवालात या न्यायिक हिरासत में उनकी मौत कैसे हो जाती है? कई आरोपियों को हवालात में यातनायें दिये जाने के आरोप लगते हैं लेकिन इन आरोपों की सच्चाई का पता लगाने में अक्सर सीसीटीवी फुटेज मददगार नहीं होती क्योंकि अक्सर वे काम नहीं कर रहे होते। थानों में आरोपियों को यातनायें दिये जाने, आरोपी की अचानक हालत खराब होने तथा अस्पताल में उनकी मृत्यु हो जाने की खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं।
थानों में आरोपियों के साथ अमानवीय व्यवहार होने के आरोपों के मद्देनजर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने सभी थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश दिये थे। थानों में लगे इन सीसीटीवी कैमरों से शायद ही कभी किसी अमानवीय व्यवहार की घटना जांच के बारे में पुख्ता तथ्य मिले हों। इसकी वजह इन कैमरों की स्थिति और इनमें रिकार्ड होने वाली फुटेज को सुरक्षित रखने के संबंध में खामियों को माना जा रहा है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही अब उच्चतम न्यायालय इन सीसीटीवी की फुटेज कम से कम 45 दिन तक सुरक्षित रखने की संभावना तलाश रहा है।
इस बाबत दायर एक जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने 24 जुलाई, 2015 को अपने फैसले में थानों और जेलों में सीसीटीवी लगाने के निर्देश दिये थे। इन निर्देशों का मकसद मानव अधिकारों के हनन की घटनाओं पर प्रभावी तरीके से अंकुश पाने के साथ ही पुलिस और जेलों के कामकाज में पारदर्शिता लाना, छेड़छाड़, लूटपाट और अपहरण जैसी घटनाओं पर अंकुश पाना तथा सीसीटीवी की मदद से अपराध के बारे में महत्वपूर्ण सुराग करना भी था। इस प्रयास में तो मदद मिली लेकिन थाने और जेलों में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार की घटनाओं को सुलझाने में इससे बहुत ज्यादा मदद नहीं मिली।
हिरासत में मौत से संबंधित एक मामले में न्यायालय ने थानों में मानव अधिकारों के हनन पर अंकुश लगाने के लिये सीसीटीवी कैमरे लगाने, घटना स्थल की वीडियोग्राफी करने और केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर निगरानी समिति गठित करने का आदेश दिया था।
निगरानी समिति गठित करने का उद्देश्य हिरासत में मौत की घटना होने पर इन सीसीटीवी कैमरों की रिकार्डिंग की जांच में मदद लेना था। लेकिन ऐसा लगता है कि थानों में अक्सर सीसीटीवी कैमरे या तो घटना के समय काम नहीं कर रहे होते हैं या फिर उनकी फुटेज लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रखी गयी।
न्यायालय ने सभी राज्यों से थानों मे लगाये गये सीसीटीवी कैमरों की स्थिति और निगरानी समिति के गठन के बारे मे जानकारी मांगी थी। न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये हिरासत में होने वाली मौत की घटनाओं पर अंकुश लगाने और थानों में सीसीटीवी काम नहीं करने या उनकी फुटेज उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में पुलिस अधिकारियों, विशेषकर थाना प्रभारियों की जिम्मेदारी निर्धारित करने जैसे पहलुओं पर इस समय विचार कर रही है।
गैर-सरकारी संगठन नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर ने कुछ महीने पहले 2019 में भारत में यातनाओं की घटनाओं पर अपनी सालाना रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि 2019 में हिरासत में 1,731 व्यक्तियों की मृत्यु हुयी। इनमें पुलिस हिरासत में 125 और न्यायिक हिरासत में 1606 व्यक्तियों की मृत्यु होने का दावा किया गया था।
उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायपालिका के कड़े रुख के मद्देनजर थानों में जहां सीसीटीवी कैमरों के लगे होने की स्थिति में बदलाव होगा और उनकी ऑडियो-वीडियो रिकार्डिंग की सुविधा चाक-चौबंद की जायेगी वहीं इन कैमरों की रिकार्डिंग भी लंबे समय तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था भी सुचारु रूप से काम करने लगेगी। इस संबध में न्यायपालिका के आदेशों और निर्देशों पर प्रभावी तरीके से अमल करके ही हिरासत में मौत की घटनाओं पर अंकुश पाया जा सकेगा।