दीपिका अरोड़ा
पराधीनता के तमस काल पर चर्चा हो और संघर्ष की मशाल प्रज्वलित करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों का जिक्र न हो, ऐसा तो संभव ही नहीं। स्वत: ही मानस पटल पर चित्रित होने लगती हैं वे दिव्य विभूतियां, जिन्होंने स्वाधीनता की बलिवेदी में सर्वस्व आहूत कर डाला। स्वतंत्रता प्राप्ति ही जिनके जन्म का प्रथम एवं अंतिम ध्येय रहा, ऐसे शूरवीरों में सरदार भगतसिंह का नाम सर्वोपरि है।
हसरत मोहानी के नारे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ को सार्थक सिद्ध करने वाले भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान) स्थित गांव खटकड़ कलां में हुआ। जन्म के कुछ समय पश्चात ही स्वतंत्रता सेनानी पिता के लाहौर जेल से छूटने का शुभ समाचार मिला, तीसरे दिन दोनों चाचा भी जमानत पर रिहा हो गए, सरदार किशन सिंह व विद्यादेवी के इस ‘भागों वाले’ शिशु को नाम दिया गया ‘भगतसिंह’।
भगत सिंह को देशभक्ति विरासत में मिली। बाल्यावस्था से ही देश को स्वाधीन कराने की भावना पल्लवित होने लगी। लाला लाजपतराय तथा अंबा प्रसाद सरीखे क्रांतिवीरों से सम्पर्क होते ही भीतर कुलबुलाता ज्वालामुखी प्रखर हो उठा। मात्र 14 वर्ष की उम्र में भगतसिंह पंजाब की क्रांतिकारी संस्थाओं से जुड़ने लगे। आरम्भिक शिक्षा डीएवी से ग्रहण करने के उपरांत आगामी अध्ययन केंद्र नेशनल कॉलेज लाहौर बना, जहां यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, रामकिशन, तीर्थराम, झंडासिंह आदि स्वतंत्रता सेनानियों से संपर्क हुआ। लाला लाजपतराय तथा परमानंद के ओजस्वी व्याख्यानों से देशप्रेम की बेल पोषित होने लगी।
13 अप्रैल, 1919 को वैसाखी वाले दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण ढंग से ‘रौलेट एक्ट’ का विरोध कर रहे निहत्थे जनसमूह पर ब्रिटिश शासन ने अंधाधुंध गोलियां बरसाईं। इससे भगत सिंह का रोम-रोम सिहर उठा। वह रक्त-रंजित मिट्टी हाथ में ले उन्होंने समूचा जीवन मातृभूमि के नाम कर दिया।
1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात अभिभावकों द्वारा विवाह का निर्णय अस्वीकार करते हुए वे कानपुर रवाना हो गए। परिवार के नाम छोड़े गए पत्र में लिखा था-‘मेरा जीवन एक महान उद्देश्य के लिए समर्पित है और वह उद्देश्य देश की आbull;जादी है…।’
सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों से परिचय होने पर उन्होंने पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारियों को संगठित करना आरम्भ किया। अगस्त, 1925 को ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के सदस्यों द्वारा पार्टी के लिए धन एकत्रित करने के उद्देश्य से हरदोई से लखनऊ जा रही 8 डाउन रेलगाड़ी के खजाने को लूटा गया। ‘काकोरी कांड’ में संलिप्त कुछ क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। वहीं 1925 के अकाली आंदोलन में भगतसिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। काले कानूनों के विरोध में ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ की देशव्यापी गूंज उठी। एक मार्च, 1926 को लाहौर में नौजवान सभा गठित की। 30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर पहुंचे साइमन कमीशन का, लालाजी के नेतृत्व में क्रांतिकारियों द्वारा डटकर विरोध किया गया। बौखलाई ब्रिटिश सरकार ने बम-विस्फोट करने का झूठा आरोप मढ़कर भगतसिंह के नाम गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया।
भगतसिंह की पहचान मात्र एक क्रांतिकारी तक ही सीमित न रही; एक अध्ययनशील दार्शनिक, लेखक, पत्रकार, श्रेष्ठ वक्ता व न्यायप्रिय मानव के रूप में भी वे खासे चर्चित रहे। उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड तथा रूसी क्रांति का विषद् अध्ययन किया। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेbull;जी, संस्कृत, पंजाबी, बांग्ला तथा आयरिश भाषाओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी। ‘अकाली’ तथा ‘कीर्ति’ नामक दो अखबारों के संपादन सहित उन्होंने इन्द्रविद्या वाचस्पति के ‘अर्जुन’ तथा गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ का कार्यभार भी बतौर संवाददाता संभाला। ‘चांद’ का मासिक जब्तशुदा फांसी अंक भगतसिंह की संपादन योग्यता का उत्कृष्ट उदाहरण है। भगतसिंह भारत में समाजवाद के प्रथम व्याख्याता थे। उन्होंने पूंजीपतियों को मजदूरों का शोषक बताया एवं निर्धनता को अभिशाप माना। स्वयं को ‘नास्तिक’ की संज्ञा देने वाले भगतसिंह के जीवन में तर्कशीलता का विशेष महत्व रहा।
जेल में गुजारे दो वर्षों के दौरान वे लेखन में सक्रिय रहे। सबूत के तौर पर मिली डायरी में नोट्स, कविताओं, व्यंग्य सहित टैगोर, टैनीसन, विक्टर ह्यूगो, कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि के विचार भी संगृहित हैं। यह डायरी ‘द जेल नोटबुक एंड अदर राइटिंग्स’ नाम से सम्पादित हुई। बधिर फिरंगी साम्राज्य तक आवाम की आवाज पहुंचाने के उद्देश्य से, भगतसिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर असेम्बली-प्रांगण में हल्का बम धमाका किया। पर्चे फेंककर नारे लगाए और स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया। जेल रिहाई के प्रत्येक प्रलोभन को अस्वीकार करते हुए भगतसिंह ने कहा कि ‘राष्ट्र के लिए हम फांसी के तख़्ते पर लटकने को तैयार हैं ताकि यह सदैव हरा-भरा बना रहे।’ दो वर्ष कानूनी लड़ाई के पश्चात, 7 अक्तूबर, 1930 को भगतसिंह, राजगुुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई। जनाक्रोश से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने, 23 मार्च, 1931 को सायं, निर्धारित तिथि से एक दिन पूर्व ही भगतसिंह एवं साथियों को फांसी पर लटका दिया। फिरोजपुर के निकट, सतलुज के किनारे चोरी-छिपे शवदाह कर दिया गया।
केवल करीब 23 साल जीने वाले भगतसिंह की वैचारिक परिपक्वता और लक्ष्य के प्रति दृढ़ता विलक्षण उपलब्धि थी। युवाओं के प्रेरणापुंज भगतसिंह का स्वाधीनता व सुशासन ही जीवन-दर्शन रहा।
115वीं जयंती के अवसर पर स्वाधीनता संग्राम के इस अमर नायक को हार्दिक नमनmdash;
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।