अनूप भटनागर
पुरुष प्रधान समाज में हम भले ही महिलाओं, विशेषकर गृहिणियों की भूमिका को कमतर आंकते हों लेकिन हकीकत इससे परे है। अगर हम श्रम और पारिश्रमिक के पैमाने पर महिलाओं, विशेषकर गृहिणियों, के योगदान और उनकी काल्पनिक आमदनी की गणना करें तो पायेंगे कि दैनिक कार्यों के मामले में गृहिणियों का पारिश्रमिक रहित योगदान पुरुषों से कहीं ज्यादा है। शीर्ष अदालत ने एक सर्वे के आधार पर इस तथ्य पर जोर दिया है कि घर के सदस्यों को बगैर किसी पारिश्रमिक के सेवायें देने के मामले में पुरुषों की तुलना में महिलायें कहीं ज्यादा समय देती हैं।
भारत में अदालतों ने हमेशा इस तथ्य को स्वीकार किया है कि परिवार में पत्नी या मां का योगदान बेशकीमती होता है और पैसे से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। पत्नी तथा मां अपने पति और बच्चों के प्रति प्रेम तथा लगाव से सारे काम करती हैं और घर की सारी व्यवस्था देखती हैं और उनकी सेवाओं को किसी अन्य प्रकार की सेवाओं के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। यही वजह है कि न्यायपालिका ने मुआवजे का निर्धारण करते समय गृहिणियों की काल्पनिक आमदनी का पैमाना निर्धारित करते समय उनके योगदान को विशेष महत्व देना शुरू किया है।
भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार करीब 15 करोड़ 98 लाख महिलाओं का मुख्य काम घर संभालना था जबकि ऐसे पुरुषों की संख्या करीब 58 लाख ही थी। इसी तरह, केन्द्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की ‘टाइम यूज इन इंडिया 2019’ शीर्षक की एक रिपोर्ट में पहली बार देश में महिलाओं और पुरुषों द्वारा घर के कामों में लगाये गये समय का जिक्र है। देश में अपनी तरह के पहले ‘टाइम यूज सर्वे’ में जनवरी से दिसंबर, 2019 के दौरान 1,38,799 घरों के बारे में जानकारी एकत्र की गयी थी। इस सर्वे में पता चला कि प्रत्येक महिला बगैर किसी पारिश्रमिक के एक दिन में करीब 299 मिनट घरेलू कामों में लगाती है जबकि पुरुष औसतन 97 मिनट ही घर का काम करते हैं।
इसी तरह, महिलायें घर के सदस्यों की देखभाल जैसी सेवाओं पर बगैर किसी पारिश्रमिक के औसतन 134 मिनट प्रतिदिन लगाती हैं जबकि पुरुष इस तरह की सेवाओं पर औसतन 76 मिनट प्रतिदिन लगाते हैं। रिपोर्ट में यह तथ्य भी सामने आया कि गृहिणी अपने दिन का समय घरेलू कार्यों के लिये 16.9 और सदस्यों की देखभाल में 2.6 प्रतिशत समय खर्च करती है जबकि पुरुषों का योगदान क्रमश: 1.7 और 0.8 प्रतिशत ही है।
उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में सड़क दुर्घटना में जान गंवाने वाली गृहिणी की काल्पनिक आमदनी (घरेलू कार्यों में उसके योगदान को ध्यान में रखते हुए) का निर्धारण करते हुए अपने फैसले में इस तथ्य का उल्लेख किया है। न्यायालय ने कहा है कि मुआवजे से संबंधित मामले, विशेषकर सड़क दुर्घटनाओं के दावों, में गृहिणियों की काल्पनिक आमदनी निर्धारित किया जाना समाज के लिये यह संकेत है कि कानून और अदालतें उनके परिश्रम, सेवाओं और त्याग का महत्व समझते हैं।
घरेलू कार्यों में गृहिणियों के योगदान के महत्व को इंगित करते हुए न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया है कि चूंकि इस तरह की स्थिति में काल्पनिक आमदनी की गणना करते समय अदालतों का प्रयास यथासंभव सर्वश्रेष्ठ मुआवजे का निर्धारण करने का होना चाहिए। मोटर वाहन कानून, 1988 की द्वितीय अनुसूची में मृतक जीवन साथी की आमदनी की गणना के लिये जीवित जीवन साथी की आमदनी का एक-तिहाई हिस्सा आधार बनाने का प्रावधान था।
इसके बावजूद, न्यायालय का यही मत रहा है कि गृहिणियों की काल्पनिक आमदनी निर्धारित करने का कोई एक निश्चित फार्मूला नहीं हो सकता और अदालतों को इस तरह की आमदनी का निर्धारण करते समय गृहिणी द्वारा अपने प्रियजनों को उपलब्ध करायी जा रही सेवाओं की गुणवत्ता, महंगाई और अनुभव आदि को भी ध्यान में रखना चाहिए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गृहिणियों की काल्पनिक आमदनी के संदर्भ में न्यायालय का हालिया फैसला और उसमें की गयी टिप्पणियां उनके काम, परिश्रम और समाज के बदलते दृष्टिकोण का परिचायक है। न्यायालय ने भी स्वीकार किया है कि यह हमारे देश के अंतरराष्ट्रीय दायित्यों और सामाजिक समता के संवैधानिक दृष्टिकोण को मजबूती प्रदान करता है और सभी को जीवन की गरिमा प्रदान करता है।
शीर्ष अदालत की इस व्यवस्था के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि दुर्घटनाओं की शिकार पीड़ित गृहिणी के मामले में मुआवजे का निर्धारण करते समय अदालतें अधिक उदारतापूर्ण दृष्टिकोण अपनायेंगी और परिवार में उनके योगदान और उपयोगिता का विशेष ध्यान रखेंगी।