अमिताभ स.
मुन्ना पहली कक्षा में पढ़ता था। उसकी अंग्रेजी की परीक्षा थी। मां उसे पढ़ा रही थी लेकिन उसका पढ़ने का बिल्कुल मन नहीं था। तभी उसे सूझा कि पढ़ाई से बचने का एक ही तरीका है कि वह बीमारी का बहाना बनाए। उसके मन में सवाल उमड़ा कि सिर दर्द या पेट दर्द का बहाना बनाया तो क्या पता मां माने या न माने? क्योंकि मां को पता कैसे चलेगा कि वह झूठ बोल रहा हूं या सच?
सो, पढ़ते-पढ़ते वह बोला-मम्मी, मुझे चक्कर आ रहे हैं..। कहते-कहते उसने अपना सिर हौले-हौले गोल-गोल घुमाना शुरू कर दिया ताकि मां को लगे कि वह बिल्कुल सच बोल रहा है। मां ने उसका घूमता सिर देखा तो पूछा-कैसे चक्कर आ रहे हैं? अगले ही क्षण वह अपना सिर और तेज़ी से घुमाने लगा और झट से बोला-मम्मी, देखो ..ऐसे..। मां को झूठ पकड़ते देर नहीं लगी। वह बोली-चल पढ़ फटाफट..कोई चक्कर-वक्कर नहीं आ रहे। उसकी समझ में नहीं आया कि इतने पक्के तरीके से बोला झूठ मां ने कैसे पकड़ लिया?
लेकिन अर्सा बाद उसने जाना कि असल में, जब चक्कर आते हैं तो सिर बाहरी तौर पर नहीं घूमता। हालांकि तब मन ही मन उसे पछतावा हुआ कि पहली बार झूठ बोला तो रंगेहाथों पकड़ा गया। लेकिन अच्छा हुआ, ज़िंदगी के शुरुआती दौर का झूठ ही हाथोंहाथ पकड़ा गया और वह झूठ बोलने की आदत से बच गया। तय है कि सत्य की मज़बूत नींव पर, इनसान हो या भवन, सौम्य ही बनेगा। इसीलिए कहते भी हैं-बच्चे मन के सच्चे। झूठ बोलते भी हैं तो झट से पकड़े जाते हैं। जाहिर है कि कोई जितना सरल होगा, उतना ही सच के करीब होगा। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट तक ने माना है कि मृत्युशैया पर पड़े व्यक्ति के बयान को सामान्य तौर पर विश्वसनीय मानना चाहिए क्योंकि ऐसा व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता। वह परिस्थितियां इतनी पवित्र और शांत होती हैं कि उनमें वह झूठ बोलने की बाबत सोच ही नहीं सकता।
यूं भी, बार-बार झूठ बोलना खुद को रोज-रोज मारने के बराबर ही है। और फिर, असत्य पर आधारित भवन रेत की नींव पर बने भवन के समान है। ऐसा भवन जो आज गिरा कि कल। सयाने बताते हैं कि झूठ के पांव नहीं होते। सत्यता की महानता ही है, जो इनसान को महान बनाने का दमख़म रखती है। जीवन दर्शन कहता है कि हर इनसान को खुद से, अपने मित्रों से, परिवार से और समाज से झूठ नहीं बोलना चाहिए। सच्चा और ईमानदार इनसान ही करिश्मे रच सकता है-प्रोफेशनल लाइफ़ में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में। बेईमानी और झूठी जिंदगी तो जीने लायक़ ही नहीं है। अगर इनसान अपने सारे लेन-देन ईमानदारी से करे तो उसके सारे भय छूमंतर होते देर नहीं लगेगी। भगवान महावीर ने तो सत्य को भगवान कहा है।
एक अर्थपूर्ण आख्यायिका है कि जब इनसान ने अपनी यात्रा का पहला क़दम रखा तो किसी शुभचिंतक ने हाथ में दो पात्र रखते हुए आगाह किया-‘तुम्हारे दायें हाथ पर सत्य का कलश है और बायें हाथ पर सुख का। तुम सदा दोनों हाथों से दाएं हाथ के कलश का ख्याल रखना। अभिप्राय था कि अगर सत्य का बचाव किया जाए तो सुख स्वत: दौड़ा आएगा। इनसान ने बड़ी सावधानीपूर्वक सतयुग तक सत्य के कलश की सुरक्षा की। लेकिन कलियुग का पहला दिन ही इनसान के लिए दुखद बन गया। इनसान विश्राम करने पेड़ के नीचे लेटा तो किसी असुर ने उन कलशों को अदल-बदल दिया। तब से अब तक इनसान सुख का बचाव और सत्य की उपेक्षा करता है। वह भूल जाता है कि सत्य के अभाव में सुख की कल्पना भी असम्भव है। मिल भी जाए तो चिरस्थायी नहीं हो सकता। सच का अपना असीम आनंद है, सुख है। जैसे माइक और कैमरा झूठ नहीं बोलते, बिल्कुल वैसे ही सच का बोलबाला लम्बे अरसे तक साथ चलता है। सच की राह पर चलने की ईमानदार कोशिश ज़रूर करनी चाहिए।
पप्पू के परिवार को ग़लतफ़हमी थी कि वह पढ़ाई में अव्वल है। वे उसके प्रथम आने की उम्मीद तक जता रहे थे। पर पप्पू था एकदम फिसड्डी। पप्पू को रह-रह कर डर सताने लगा कि कहीं सभी न कह बैठें कि हैं …हमारा पप्पू तो फेल हो गया! परेशान पप्पू जुट गया भगवान को मस्का लगाने-‘हे प्रभु! मेरा परीक्षा परिणाम पलट दीजिए प्लीज। ख़ैर, उसे जानते ज़्यादा रोज नहीं लगे कि उसका रिज़ल्ट बदलने वाला नहीं है। तभी उसने अपने परिवार को सच बताने का मन बना लिया कि तुम्हारा पप्पू फेल हो रहा है। वह खुद ही झूठ की दलदल से बाहर निकल गया। उसने महसूस किया कि झूठ बोल कर वह बेचैनी, परेशानी और तनाव में धंसता जा रहा था। सच जाहिर कर उसने सुकून हासिल कर लिया।
बिबिलिकन के राजा सोलोमन ने 700 पत्नियों, 300 रखैलों, बेशुमार दौलत और शक्ति अर्जित करने के बाद ‘सोलोमन द वाइज’ यानी बुद्धिमान का तमग़ा हासिल किया। उसके जीवन का सार है कि तमाम बुराइयों के बावजूद तमग़ा हासिल करने के लिए ‘सत्यवान और ईमानदार’ बनना सबसे ऊपर है।