अगर आप विद्यार्थी, शिक्षार्थी अथवा अभिभावक हैं और दशकों बाद आई नयी शिक्षा नीति में कही गई कुछ ‘अच्छी-अच्छी’ बातों के खुमार में डूबे हुए हैं तो यह आपके सचेत होने का समय है। न सिर्फ इसलिए कि अभी भी देश के बजट में शिक्षा पर निर्धारित खर्च अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंचा है और बढ़ते निजीकरण के कारण निर्बल आय वर्ग के छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर पाना आगे भी मुश्किल ही बना रहने वाला है। इसलिए पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष मानने वाली देश की वर्तमान व्यवस्था में फर्जीवाड़े शिक्षा क्षेत्र को भी अपनी जद में लेते जा रहे हैं।
लगातार फर्जीवाड़ों के कारण व्यावसायिक व गैर-व्यावसायिक शिक्षा क्षेत्रों के विशेषज्ञों व जानकारों की चिन्ता अब महज इतनी नहीं रह गई है कि शिक्षा को लगातार खरीद-बिक्री की वस्तु बनती जाने से रोककर भावी पीढ़ियों के चरित्र निर्माण, ज्ञान और रोजगार के अर्जन जैसे पवित्र उद्देश्यों की ओर कैसे मोड़ा जाये? अब वे इसे लेकर भी चिंतित हैं कि शिक्षा माफियाओं द्वारा किये जा रहे फर्जीवाड़ों से शिक्षा की पहुंच और गुणवत्ता बढ़ाने की कोशिशों को एकदम से बेकार हो जाने से कैसे बचाया जाये।
देश की विशाल जनसंख्या के अनुपात में जहां एक ओर पहुंच व गुणवत्ता बढ़ाने की ये कवायदें बेहद अपर्याप्त हैं, वहीं दूसरी ओर फर्जी शिक्षा संस्थानों व फर्जी डिग्रियों के गोरखधंधे तेजी से बढ़ रहे हैं। विडम्बना यह कि जब भी किसी अंचल से इस तरह के किसी गोरखधंधे का खुलासा होता है, सरकारें चौंक पड़ने का अभिनय करती हुई उनके खिलाफ दिखावे की सक्रियताएं दिखाती हैं, फिर उनकी चर्चा मद्धिम पड़ते ही अगले खुलासे तक के लिए सो जाती हैं। फिर भी किसी स्तर पर ऐसी व्यवस्था करने की जरूरत नहीं समझी गई कि किसी के लिए अपनी पहुंच, प्रभुत्व या पैसे के बल पर फर्जी डिग्रियां पाना संभव न हो पाये।
लेकिन डिग्रियों की बात क्या की जाये, जब फर्जी विश्वविद्यालयों की भी बाढ़ आने लगी है। पिछले दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने देश के दो दर्जन फर्जी विश्वविद्यालयों की जो सूची जारी की है, वह हमें यह समझाने के लिए पर्याप्त है कि शिक्षा क्षेत्र के हालात कितने खराब हो चले हैं। इसे इस तथ्य से जाना जा सकता है कि इनमें में सात देश की राजधानी दिल्ली में पकड़ में आये हैं और आठ देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में। यहां यह भी गौरतलब है कि दो साल पहले 2018 में देश में जिन 277 फर्जी इंजीनियरिंग कॉलेजों की पहचान की गयी थी, उनमें भी सबसे अधिक देश की राजधानी में ही थे।
प्रसंगवश, नियम यह है कि विधायिका से स्वीकृत और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त होने के बाद ही शैक्षणिक संस्थाएं अपने लिए ‘विश्वविद्यालय’ शब्द का उपयोग कर सकती हैं या खुद के विश्वविद्यालयों के बराबर होने का उल्लेख कर सकती हैं। इस प्रक्रिया से न गुजरी किसी भी शैक्षणिक संस्था को डिग्रियां जारी करने का अधिकार नहीं है। लेकिन मामला इतना-सा ही नहीं है। फर्जी विश्वविद्यालयों की कारस्तानियां तो अपनी जगह पर रहें, कई विश्वविद्यालय जो फर्जी नहीं भी हैं, फंसाने वाले भ्रामक व आकर्षक विज्ञापनों के माध्यम से छात्रों को गुमराह कर उनका ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश कर लेते हैं, जिन्हें संचालित करने का उन्हें अधिकार ही नहीं है। बात खुलती है तो गाज उनके बजाय प्रभावित छात्रों पर गिरती है।
पिछले साल बड़े पैमाने पर पैसे के बदले डिग्रियां देने के धंधे के खुलासे के बाद सरकार ने एक उच्चस्तरीय जांच समिति गठित की थी। तब इंजीनियरिंग और वकालत की डिग्रियों के साथ पीएचडी की डिग्रियां बेचे जाने के मामले भी सामने आये थे। उसमें लिप्त कुछ लोगों की धरपकड़ की कोशिशें भी की गई थीं, लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा जारी फर्जी विश्वविद्यालयों की ताजा सूची गवाह है कि उक्त गड़बड़ घोटाले के पीछे जो संगठित माफिया गिरोह थे, उन पर लगाम नहीं लग पाई है। याद करना चाहिए कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया के प्रमुख ने भी कुछ समय पहले कहा था कि देश में 30 प्रतिशत से अधिक वकीलों की डिग्रियां फर्जी हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन व भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय का मानना है कि भारत में 57 फीसदी से अधिक डॉक्टर नकली सर्टिफिकेट के आधार पर दवाइयां दे रहे हैं, जबकि आम लोगों के लिए यह जानना भी आसान नहीं होता कि कौन-सा डॉक्टर या वकील असली है और कौन नकली?
बीते दशकों में रोजगारों व नौकरियों के स्वरूप में ऐसे बड़े बदलाव आये हैं, जिन्होंने इस तरह के गड़बड़ घोटालों को शह प्रदान की है। इन सबके बीच हम देश और उसकी युवा पीढ़ी के कैसे भविष्य की कल्पना कर सकते हैं?