पिछले कुछ महीनों में कोरोना की दूसरी लहर के रूप में मौत का विकराल झंझावात देश ने झेला। अब चाहे अधिकृत तौर पर यह घोषणा कर दी गयी है कि कोरोना की दूसरी लहर दब गयी है। यहां तक कि नीति आयोग के सेहत विषयक कमेटी के सदस्य श्रीपाल ने तो देश में कोरोना की दूसरी लहर से हुई तबाही का पूर्ण सर्वेक्षण करने और इससे प्राप्त तथ्यों के आधार पर कोरोना महामारी का मुकाबला करने वाली राष्ट्रीय नीति में उचित संशोधन करने की बात कही।
लेकिन कुछ बातें इस कोरोना लहर के दुष्प्रभावों की स्पष्ट हैं। पहली बात तो यह कि जहां इस वर्ष 16 जनवरी से भारत में कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान शुरू हुआ, वहां फरवरी मास से कोरोना की दूसरी लहर ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया जो देखते ही देखते मई मास तक अपने शिखर पर पहुंच गयी। इसके बाद कोरोना संक्रमण प्रभाव घटना शुरू हुआ, मौतों की संख्या और दर घटी और स्वस्थ होकर घर लौटने वाले लोगों की संख्या कहीं अधिक हो गयी।
सरकार ने कोरोना की दूसरी लहर में उतार की बात कहते हुए कहा कि अब देश में औसत संक्रमण दर पांच प्रतिशत हो गयी। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि अगर कोरोना संक्रमण दर 5 प्रतिशत से नीचे आ जाये तो कोरोना काबू हो गया। लेकिन देश के कई जिलों में अभी संक्रमण दर अधिक है। अत: पूरे देश को अभी कोरोना से निजात नहीं मिली।
यह सही है कि मई अन्त से लेकर जून मध्य तक कोरोना के मरीजों में साठ प्रतिशत कमी आयी है। चाहे आज भी देश में महामारी से राहत की घोषणायें अधिक हैं, लेकिन आम आदमी को अपने आर्थिक, सामाजिक और दैनिक जीवन में अपेक्षित राहत महसूस नहीं हो रही। सही है कि पिछले दिनों में मरीज घटे हैं, देश में रोज होने वाली मौतें घटी हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस लहर में छह प्रतिशत मौतें अधिक हुई हैं। देश में कोरोना की महामारी का सर्वेक्षण नित्य नये सत्य उद्घाटित कर रहा है। कोरोना की दूसरी लहर पर जो सीरो सर्वेक्षण हुआ है, उसने बताया है कि इस बार देश में 19.9 प्रतिशत ग्रामीण जनता भी कोरोना ग्रस्त हुई। इस बार वरिष्ठों के मुकाबले अपेक्षाकृत कम उम्र के लोगों को अधिक कोरोना हुआ और यह पूर्व धारणा कि कोरोना पुरुषों को अधिक और औरतों को कम होता है, खंडित हो गयी। इस बार औरतों को भी कोरोना अधिक संख्या में हुआ है।
निस्संदेह 16 जनवरी से चल रहे कोरोना से बचाव के टीकाकरण की नीति में कई त्रुटियां नजर आयीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी टीकाकरण की तीन कीमतों और असंगत वितरण पर कड़ी टिप्पणियां कर दीं। टीकों के अनुचित इस्तेमाल, उनके व्यर्थ या बर्बाद होने पर सवाल उठे। आज ग्रामीण जनता भी कोरोना ग्रस्त हो रही है, परन्तु वहां पर न तो उचित जांच व्यवस्था है, न उिचत टीकाकरण हो रहा है और न ही जीवनरक्षक दवाओं की उचित आपूर्ति है। जांच और टीका पार्टियों के गांवों में प्रवेश के विरोध के समाचार मिले हैं। गांवों में उचित चिकित्सा व्यवस्था न होने के कारण महामारी की इस लहर के दौरान झोलाछाप डाक्टरों का बोलबाला भी देखा गया है। इसलिए देश की यह जरूरत साफ मुखर हो रही है कि जल्द भारत के ग्रामीण अंचलों में चिकित्सा ढांचे का द्रुत गति से निर्माण किया जाये। केवल टूटी-फूटी मरम्मत से काम नहीं चलेगा।
कोरोना की इस दूसरी लहर का जो समय देश पर गुजरा, वह बहुत पीड़ादायक था। संक्रमित मरीजों को देश की वर्तमान चिकित्सा व्यवस्था में न तो उचित उपचार, न बेड व्यवस्था, आक्सीजन और न वेंटिलेटर की सुविधा मिली। आॅक्सीजन के अभाव में लोग तड़प-तड़प कर मरते देखे गये। मर गये तो उचित अंतिम संस्कार के लिए श्मशानों, कब्रिस्तानों और विद्युत शवदाह गृहों में शवों की कतारें लगी। उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा के निर्जन तटों पर दबी और अधदबी लाशें अपनी लोमहर्षक कहानी अलग से कहती रहीं। यह त्रासद तथ्य थे जो और भी त्रासद हो गये, तो खोजी सूत्रों ने कहना शुरू कर दिया कि मौतों के आंकड़े जितने बताये जा रहे हैं, उससे कहीं अधिक मौतें हुई हैं। महामारी का सामना करते हुए सरकार पहली लहर के पूर्णबन्दी और निरंतर कर्फ्यू जैसे कठोर आदेश इस बार दोहराना नहीं चाहती थी, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर इतना आघात हुआ था कि देश का सकल घरेलू उत्पादन 22 प्रतिशत कम हो गया था। कहां तो हम सन् 2020 से आत्मनिर्भर और स्वत: स्फूर्त भारत के सपने देख रहे थे और कहां देश की आर्थिक विकास दर में -7.7 प्रतिशत की कमी आ गयी।
कोरोना की इस दूसरी लहर में निरंतर व्यापक पूर्णबन्दी के आदेश से परहेज किया गया। अत: इस बार केवल संक्रमित जोनों में पूर्णबन्दी और आंशिक बंदी और वीकएंड लाॅकडाउन और समयबद्ध कर्फ्यू को अपनाया गया। लेकिन अब कोरोना की दूसरी लहर के पराभव के साथ-साथ हम पा रहे हैं कि अर्थतन्त्र की हालत पर इस बार भी पक्षाघात हुआ। पहली लहर में शहरों की श्रम शक्ति का बड़ा हिस्सा घर लौट गया। इस लहर में इन उखड़े हुए लोगों की संख्या में और वृद्धि हो गयी। कोरोना की इस लहर-दर-लहर से आतंकित ये लोग अब महानगरों की ओर लौटना नहीं चाहते। उनके लिए अब एक नये ग्रामीण भारत का निर्माण करना होगा। वापस न लौटने वाली इस श्रम शक्ति के लिए इनके पैतृक व्यवसाय खेतीबाड़ी के सहयोग में इससे जुड़े अन्य लघु और कुटीर उद्योगों का विकास करना होगा।
आने वाले भारत का चेहरा इस्पाती औद्योगिकीकरण और महानगरीय संवेदना का नहीं होगा, उस प्रगतिशील ग्रामीण और किसानी संस्कृति का होगा जो अपने डिजिटल लघु और कुटीर उद्योगों के विकास के साथ अपनी उखड़ी हुई आबादी को संरक्षण दे सकेगा और उनके अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार की संभावनाओं को भी तलाशता रहेगा। विदेशी व्यापार की असीम सम्भावनाएं केवल बड़े-बड़े धनिक घरानों और बड़े उद्योगों की ही बपौती क्यों रहें? आने वाले बरसों में छोटे उद्यमी लघु और कुटीर घराने भी उनका यथोचित आधार बनें। एेसी उत्पाद गतिविधियां अगर देश की लोक संस्कृति और कलात्मक जागरूकता के साथ जोड़ी जा सकें तो निस्संदेह इस विकट समय में यह भारत के ग्रामीण जनजीवन में नये प्राणों का संचार कर सकेगी। इन अभावग्रस्त लोगों को बार-बार अपनी जड़ों से उखड़ने की जरूरत भी न पड़ेगी।
लेकिन नई जिन्दगी पाने के लिए भविष्य की इस योजनाबन्दी में हमें कोरोना महामारी के रूप बदल सकने वाले इस धूर्त वायरस स्वभाव को नहीं भूलना चाहिए। कोरोना की दूसरी लहर में अगर ब्रिटेन से फैलता म्यूटेंट वेरिएंट था, तो अब टीकाकरण के बावजूद दक्षिण-पूर्वी एिशया से फैलता वायरस वेरिएंट है। इसे भारतीय वेरिएंट कहने की गुस्ताखी न कर ‘डेल्टा वेरिएंट’ कह सकते हैं हम। ब्रिटिश और यूरोपियन आबादी पर इसने असर दिखाना शुरू किया है। सुना जा रहा है कि टीकाकरण के बावजूद जापान भी कोरोना की इस नयी लहर के प्रभाव में आ सकता है।
अभी सवाल इन संक्रामक परिस्थितियों की जवाबदेही छुटकारे का नहीं। चिकित्सा विज्ञान और अनुसंधान के नव क्षितिजों को सतत गतिशील रखकर अपने बचाव और प्रतिरोध के उपचार को सतत विकासशील करना होगा। विज्ञान और प्रतिरोधी शक्तियों का सदा आमना-सामना रहा है। इनसान की अदम्य शक्ति अपने संकट पहचान ले तो उसे कभी हार नहीं मानती। जरूरत इस समय रंग बदलते वायरस का गला नापने की है। वैज्ञानिक उपलब्धियों की सहायता से मानवीय संघर्ष शक्ति इसमें विजयी होगी, संदेह नहीं।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।