अरुण नैथानी
निस्संदेह, आस्था का संकल्प मनुष्य को उन स्थितियों से जूझने का संबल देता है, जिसकी उम्मीद साधारण मनुष्य से नहीं की जा सकती। कहीं न कहीं मन में यह विश्वास होता है कि उसका अाराध्य उसके साथ है। अवचेतना में इस विचार की उपस्थिति मनुष्य को अप्रत्याशित करने के लिये प्रेरित करती है। ठीक ऐसे ही जैसे मध्य प्रदेश की उर्मिला चतुर्वेदी का 28 वर्ष पूर्व लिया गया संकल्प कि वह राम मंदिर बनने पर ही अन्न ग्रहण करेंगी। पिछले दिनों जब कोर्ट के फैसले के बाद पांच अगस्त को राम मंदिर का भूमि पूजन हुआ तो उर्मिला के मन की मुराद पूरी हुई।
उर्मिला का संकल्प विशुद्ध आस्था का प्रसंग है, उसका किसी राजनीतिक संस्था और संगठन से जुड़ाव नहीं है। वर्ष 1992 के घटनाक्रम ने उर्मिला को उद्वेलित किया था। तब उन्होंने संकल्प लिया था कि जिस दिन सबकी सहमति से मंदिर निर्माण शुरू होगा तब वे अन्न ग्रहण करेंगी। तब उनकी उम्र 53 साल थी। उन्होंने 28 साल तक अन्न त्याग के संकल्प को निभाया। उन पर परिजनों का अन्न न त्यागने के लिये लगातार दबाव भी था। परिवार को उनके स्वास्थ्य की चिंता थी मगर वह अपने उपवास के संकल्प से नहीं डिगी।
निस्संदेह उपवास का संकल्प करना और उसे तमाम अनिश्चितताओं के बाद निभाना आसान नहीं था। सिर्फ दूध व फल पर निर्भर रहना कुछ दिन तो चल जाता है मगर उसे जीवन का हिस्सा बना लेना आसान नहीं था।
वाकई इसे वर्षों तक जीवन का हिस्सा बना लेना सहज नहीं था। उर्मिला लगातार रामायण का पाठ करती रहती। कभी परिवार के लोग भी रामायण व गीता पढ़ने में उनका साथ दे देते। सुबह जल्दी उठकर पूजा करना और परिवार के बच्चों के साथ समय बिताना। इन 28 सालों में उन्हें तमाम मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। यह एक तपस्या जैसा था। जैसे त्रेता में सबरी ने राम के प्रति आस्था जतायी थी वैसा ही संकल्प कलियुग में उर्मिला का भी था। वह समाज व रिश्तेदारी के समारोह आदि में सक्रिय भूमिका न निभा पाती। तमाम लोग उन्हें उपवास तोड़ने की नसीहत देते कि इस मुद्दे पर चली लंबी राजनीति व कोर्ट-कचहरी की प्रक्रिया से यह कहना कठिन है कि राम मंदिर कब तक बन पायेगा। लेकिन समाज में तमाम लोग ऐसे भी थे जो उनकी तपस्या की तारीफ करते और उनका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करते। उन्हें कई बार सार्वजनिक समारोहों में सम्मानित भी किया गया।
जबलपुर के विजयनगर की रहने वाली उर्मिला ने जब उपवास का संकल्प लिया तब वह 53 साल की थी। तब मन में उत्साह व जोश था तो शारीरिक रूप से भी वे सक्षम थीं। कालांतर बढ़ती उम्र के साथ कई तरह की बाधाएं भी आईं लेकिन कहावत है न कि मन के जीते जीत होती है। उनकी बहू रेखा चतुर्वेदी कहती हैं कि उन्होंने कभी भी उर्मिला में ऊर्जा की कमी महसूस नहीं की। हालांकि, बढ़ती उम्र का प्रभाव तो जीवन का सत्य है। लेकिन जब अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो उनका उत्साह सातवें आसमान में दस्तक देने लगा। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपने आराध्य को साष्टांग प्रणाम किया। यहां तक कि उन्होंने इस बहुचर्चित मामले में फैसला देने वाले जजों तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को पत्र लिखकर आभार जताया। वह भूमि पूजन वाले दिन तक आस लगाये बैठे थी कि शायद कहीं से उन्हें भूमि पूजन का बुलावा आ ही जाये।
बहरहाल, उर्मिला के मन में एक कसक जरूर रह गई कि वह भूमि पूजन की साक्षी न बन सकी। उनकी दिली इच्छा थी कि सरयू में स्नान करके भूमि पूजन कार्यक्रम में भागीदारी करे लेकिन बढ़ती उम्र और कोरोना संकट के चलते आम लोगों की भागीदारी न होने पर बड़ी मुश्किल से परिवार ने उन्हें सांत्वना दी। उन्हें समझाया गया कि वह घर से पूजा-पाठ के जरिये इस कार्यक्रम में भागीदारी करे।
कोरोना काल में उर्मिला ने बढ़ती उम्र के लोगों में संक्रमण की आशंका के चलते खुद को अपने कमरे तक ही सीमित कर रखा था। वे अपने कमरे में अपने आराध्य की पूजा में समय बिताती थीं।
अभी भी उर्मिला की दिली इच्छा है कि वह अयोध्या जाकर अपनी मुराद पूरी करे। उनकी हार्दिक इच्छा है कि यदि अयोध्या में उन्हें ठहरने के लिये जगह मिल जाये तो वह हमेशा के लिये अयोध्या की हो जायें। परिवार के लोगों ने उन्हें विश्वास दिलाया है कि वे स्थितियां सामान्य होने पर उन्हें अवश्य अयोध्या लेकर जायेंगे। वे भी उनका वर्षों पुराना संकल्प पूरा करके पुण्य में भागीदारी करना चाहते हैं।
उनकी तपस्या पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने भी ट्वीट किया था ‘प्रभु श्रीराम कभी अपने भक्तों को निराश नहीं करते। फिर चाहे वह त्रेतायुग की सबरी हो या आज की मैया उर्मिला। माता धन्य है आपकी श्रद्धा। यह संपूर्ण भारत आपको नमन करता है।’ निस्संदेह, शुद्ध-सात्विक आस्था के रूप में उर्मिला का 28 साल का उपवास उनके दृढ़ निश्चय का ही पर्याय है।