सुरेश सेठ
कोरोना के कहर की सालगिरह अपने देश में पूरी हो गयी। कोरोना महामारी देश में अपनी दूसरे वर्ष की पारी शुरू कर चुकी है। यह पहली से भी अधिक भयावह है। एक दिन में अगर चार लाख से अधिक मरीज किसी रोग से संक्रमित होने लगें और दुनिया में इस महामारी से जान गंवाने वाला हर चौथा व्यक्ति भारतीय हो तो भला इस रोग से देश का दैनिक जीवन किसी अंधकूप में कैद हो अपना दम घुटता महसूस नहीं करेगा, तो और क्या करेगा?
एक बरस बीत गया, अभी सामान्य जीवन से आदमी का निर्वासन न जाने कितने दिन और है? जिंदगी से सामाजिकता, सभ्याचार, सार्वजनिक आदान-प्रदान का अर्थ त्याज्य होता जा रहा है। एक-दूसरे को चेहरा न दिखाने का हुक्म है। अपनी सांसों को आवरण देना है। ‘चेहरे एक-दूसरे को न नज़र आयें तो भला,’ यह वायरसयुक्त हवाओं ने हुक्म दिया। तपाक से गले मिलने वालों की इच्छा रखने वालों को हाथ भी न मिलाने का आदेश हो गया। तीन हाथ दूर रहकर बात करने का नया रिवाज बना।
अब आत्मीयता, अंतरंगता, स्नेहिल अभिवादन की परिभाषायें बदलनी होंगी। आत्मसाक्षात्कार और आत्मालाप की नयी पगडंडियां सामान्य मार्ग हो जीने का अर्थ बदलने की चेष्टा करने लगीं। देखते ही देखते पाठशालाओं, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के परिसर आदमी की जिंदगी से मुंह चुराते नज़र आये। परिसंवाद, वक्तृता, समूह गायन और सामूहिक प्रयास जीवन से बहिष्कृत होते नज़र आने लगे। उसकी जगह आभासी दुनिया और इंटरनेट से गुफ्तगू आदमी को जिंदगी का नया ढंग सिखाने लगी।
दूसरा बरस शुरू हो गया, हम इस रहस्यमय वायरस की शक्ति को और भी अधिक विस्तार होता पाते हैं। पंजाब जैसे छोटे से राज्य में प्रतिदिन सात हज़ार से अधिक लोग संक्रमित हो रहे हैं, और अभी तक कुल मिलाकर दस हज़ार से अधिक लोग काल का ग्रास हो चुके हैं। यही हाल पूरे देश का है। लगातार दूसरे बरस भी लाखों की तादाद में लोगों का इस संक्रामक रोग से ग्रस्त हो जाना और हज़ारों की तादाद में दम तोड़ देना इसके भयावह प्रभाव को दिखाता है।
अपने देश की स्वच्छता का कसीदा तो पहले ही कोई नहीं पढ़ता था, इस बरस यहां इस रोग के संक्रमण को इस तेजी से बढ़ते देखा तो अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे अत्याधुनिक देशों ने घबरा कर भारत में आने-जाने से मनाही कर दी। चाहे उनके अपने देश भी इस संक्रामक रोग से अछूते नहीं रहे। जिस तरीके से अपने देश में इस संक्रामक रोग से निपटा जा रहा है, उसके प्रति न्यायपालिका की दैनिक चेतावनियों के बावजूद किसी प्रकार का कोई नव जागरण, नये ढंग से जीने की चेतना दिखायी नहीं देती। साफ नज़र आ रहा है कि कोरोना की यह दूसरी लहर पहली लहर से कहीं अधिक भयावह है, लेकिन इसका सामना करने की प्रतिबद्धता नज़र नहीं आती।
मुनाफाखोरों की वही चाल बेढंगी, जो पहले थी, वह अब भी नज़र आने लगी। रेमडेसिवीर जैसे टीके इस रोग की राम बाण औषधि हैं या नहीं, यह सिद्ध नहीं हुआ, और जमाखोरों ने इसकी जमाखोरी करके बाज़ार से गायब कर दिया। अब अनसुने दामों पर उसे बेचा जा रहा है। यह रोग फेफड़ों का संक्रमण पैदा करता है, आक्सीजन घटा देता है, वेंटिलेटर तक पहुंचने की नौबत आ जाती है। लीजिये जिस जीवनरक्षक उपकरण और औषधि की मांग हुई, वही मार्किट से गायब हो गयी। काले बाजार की रौनक बढ़ाने लगी। मिलावटखोरों, तस्करों और नंबर दो का धंधा करने वालों की बन आयी। मौत एक ऐसी अचानक अनिवार्यता बनी, जो अचानक किसी का भी पता पूछती हुई आ धमकती है। पिछले बरस से यह सच आपके दरवाजों पर दस्तक दे रहा है, लेकिन उसकी परवाह किये बगैर, खाली शीशियों में नकली टीकों के बाजार अलग सजने लगे। आक्सीजन सिलेंडरों की मांग के बराबर आपूर्ति नहीं और वेंटिलेटर हैं तो उनके चलाने वाले प्रशिक्षित लोगों की कमी है। ऐसी दिल दहला देने वाली खबरें मिलती हैं कि पंचतारा अस्पतालों में आक्सीजन की आपूर्ति खत्म हो गयी और रोगी दम घुटकर मर गये।
लगता है यहां जिंदगी नहीं आजकल मौत के बाजार सजते हैं। आदमी के उजले भविष्य पर प्राणघातक दवाओं के साये मंडराने लगे। चाहे मरने वालों की सूची लम्बी होती जा रही है, लेकिन संकट में से संपन्नता तलाश करने वालों की एक नयी जमात भी उभरती दिखायी देती है।
वैज्ञानिकों ने दिन-रात मेहनत करके इस वायरस से बचाव के टीके बनाये। कोवैक्सीन, कोवीशील्ड, स्पूतनिक, मॉडर्ना, फाइजर। लेकिन इन पर भी व्यापारीकरण हावी करने का ऐसा दुराग्रह। भारत में अट्ठारह बरस से ऊपर के सब लोगों को यह टीका लगा देने का फैसला हुआ, लेकिन टीके की आपूर्ति जरूरत से कहीं कम है। ‘सबको टीका लगाओ’ के आदेश के बावजूद महज आठ राज्यों में सबका टीकाकरण शुरू हो सका। देश में अभी महज दस प्रतिशत आबादी को टीका लग सका है। इस गति से कब लगेगा सवा अरब की आबादी को टीका और तब तक कितनी कोरोना लहरें भुगतेगा देश?
विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि पिछले बरस के अंत में कोरोना लहर के थोड़ा दबते ही हमने स्वानुशासन को परे रख महामारी का जश्न मना लिया, फिर आ सकने वाली आपदा का सामना करने की अग्रिम तैयारी ताक पर रख दी। तभी आज देश के हर कोने में यह मृत्यु ताण्डव देख रहे हैं। जहां इस जीवन से विदा भी कतार में लगकर हो रही है, तो वह एक ही बात इनसानियत को सिखा रहा है कि आदमी के हाथ में उसकी मौत तो नहीं, लेकिन अपने आदर्शों का पालन करते हुए नियम संयम से जीना उसके बस में हो सकता है।
हर बात के लिए शार्टकट, हथेली पर सरसों जमा कर सफल हो जाने की नीति की सदा सफलता की कुंजी नहीं होती। सतत मेहनत, अग्रिम योजनाबंदी और अपने काम करने के ढांचे के प्रति सचेत रह उसके नवीनीकरण का प्रयास करते रहना, कम से कम यह संदेश और संतोष तो दे जाता है कि हमने वाम परिस्थितियों के साथ संघर्ष करने का प्रयत्न तो किया। प्रयास में आदमी जूझ भी मरे तो उसे संतोष तो रहता है कि उसने जिंदगी को मुख्य द्वार से गुजर कर जीने का प्रयास किया।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।