अक्सर सभी एक कहावत जरूर कहते हैं जैसा करोगे, वैसा भरोगे। यह ज़िन्दगी की ऐसी कविता है, जो हर किसी को कभी-न-कभी पढ़ने को मिली जरूर है। कबीर तो कहते ही रहे हैं :-
करना था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय।
कबीर तो हमारे दोहरे व्यक्तित्व और नकली मुखौटों पर भी सदा चोट करते आये हैं। मुखौटों पर मुखौटे लगाना जैसे हमारे लिए फैशन हो गया है। आखिर हम सहज क्यों नहीं हो पाते? इस प्रश्न का बड़ा ही सरल सा उत्तर यह है कि हम अपने कर्म के परिणाम पर कभी विचार नहीं करते।
हाल ही में एक प्रेरक प्रसंग ने अन्तर्मन को छू लिया। एक अस्पताल में एक एक्सीडेंट का केस आया। अस्पताल के मालिक डॉक्टर ने मरीज़ की आईसीयू में जाकर केस की जांच की और अपने स्टाफ को कहा कि इस व्यक्ति को किसी प्रकार की परेशानी न हो। उससे रुपए मांगने से स्टाफ को भी मना कर दिया। 15 दिन तक मरीज अस्पताल में रहा।
जब बिल्कुल ठीक हो गया तो डिस्चार्ज के दिन मरीज का बिल डॉक्टर की टेबल पर आया। डॉक्टर ने अपनी अकाउंट मैनेजर को बुला कर कहा—इस व्यक्ति से एक पैसा भी नहीं लेना है। अकाउंट मैनेजर ने कहा—डॉक्टर साहब, तीन लाख का बिल है, नहीं लेंगे तो कैसे काम चलेगा? डॉक्टर ने कहा—दस लाख का भी क्यों न हो, एक पैसा भी नहीं लेना है। ऐसा करो, तुम उस मरीज को लेकर मेरे चेंबर में आओ। मरीज को चेंबर में लाया गया, साथ में मैनेजर भी थी। डॉक्टर ने पूछा—प्रवीण भाई! मुझे पहचानते हो…? मरीज ने कहा—लगता तो है कि मैंने आपको कहीं देखा है! डॉक्टर ने याद दिलाया—एक परिवार पिकनिक पर गया था। लौटते समय उनकी कार बंद हो गयी और कार में से धुआं निकलने लगा। कार चालू नहीं हुई। अंधेरा घिरने लगा था। चारों ओर जंगल और सुनसान था। पति, पत्नी, युवा पुत्री और छोटा बालक सब भगवान से प्रार्थना करने लगे कि कोई मदद मिल जाए तो प्राण बचें।
थोड़ी ही देर में मैले से कपड़ों में एक युवा बाइक से उधर आता हुआ दिखा। हम सबने उसको रुकने का इशारा किया। वह तुम ही थे न प्रवीण! तुमने बाइक खड़ी कर हमारी परेशानी का कारण पूछा। फिर तुमने कार का बोनट खोला और कार को चेक किया।
उस समय मेरे परिवार को और मुझको ऐसा लगा कि जैसे भगवान ने हमारी मदद करने के लिए ही तुमको भेजा है। तुमने हमारी कार चालू कर दी। मैंने जेब से बटुआ निकाला और तुमसे कहा—भाई, तुमने ऐसे कठिन समय में हमारी मदद की, इस सहायता की कोई कीमत नहीं है, ये अमूल्य है, तुम्हें कितने पैसे दूं?
उस समय तुमने मुझ से हाथ जोड़कर जो शब्द कहे—वही शब्द अब मेरे जीवन की प्रेरणा बन गये हैं। तुमने कहा—साहब, मुश्किल में पड़े व्यक्ति की मदद के बदले मैं कभी पैसे नहीं लेता। मेरी इस तरह की मजदूरी का हिसाब मेरे भगवान रखते हैं। यहां से तीन किलोमीटर आगे मेरा गैराज है, मैं आपकी गाड़ी के पीछे पीछे चल रहा हूं। गैराज़ पर चलकर पूरी तरह से गाड़ी चेक कर लूंगा।
इस घटना को पूरे तीन साल होने को आए। मैं न तो तुमको भूला, न ही तुम्हारे शब्दों को भूल पाया। मैंने भी अपने जीवन में वही संकल्प ले लिया। एक बात मैंने सीखी कि बड़ा दिल तो गरीब और सामान्य लोगों का ही होता है, बाकियों का तो कोई न कोई स्वार्थ हुआ करता है। यह अस्पताल मेरा है। तुम यहां मेरे मेहमान बनकर आए हो, इसलिए मैं तुमसे कुछ भी नहीं ले सकता। तुम्हारे शब्दों ने मेरी अंतरात्मा को जगा दिया था। अब मैं भी अस्पताल में आए हुए किसी संकट में पड़े हुए लोगों से कभी कुछ भी नहीं लेता हूं ।
अकाउंट मैनेजर से डॉक्टर ने कहा—ज्ञान पाने के लिए जरूरी नहीं कि कोई गुरु या महान पुरुष ही मिले। एक सामान्य व्यक्ति भी हमारे जीवन के लिए बड़ी शिक्षा और प्रेरणा दे सकता है। प्रवीण से डॉक्टर ने कहा—तुम आराम से घर जाओ। प्रवीण ने चेंबर में रखी भगवान की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर कहा—हे प्रभु, आपने आज मेरे कर्म का पूरा हिसाब चुका दिया, आपका लाख-लाख शुक्रिया।
लगता है कि भगवान चाहे हमारे दुष्कर्मों को माफ कर दे, परंतु कर्म का फल तो मिलता ही है। इसलिए बड़ों ने कहा है कि अपने कर्म का सदैव ध्यान रखें और मुसीबत में पड़े जरूरतमंदों की मदद अवश्य करें।
आज हम सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं। कर्म के फल की तो कभी सोचते ही नहीं? क्या हम संकल्प नहीं ले सकते कि अगर कोई व्यक्ति मुसीबत में होगा तो हम उसकी मदद अवश्य करेंगे? एक बार उठिए तो सही, आपकी सोच वाले आपके साथ अवश्य आएंगे और फिर कारवां बनता जाएगा।