कुमार विनोद
मित्र के साथ बाजार से गुज़र रहा था। चौराहे पर केलों से लदी रेहड़ी देखकर मुंह में पानी भर आया और मैं रेहड़ी वाले से केलों का भाव पूछ बैठा। जवाब सुनकर लगा कि महंगे बता रहा है। रेहड़ी वाले से इसकी वजह पूछी तो वह बोला, ‘साहब! डीज़ल महंगा हो गया है।’ सच कहूं तो बात मुझे पूरी तरह समझ नहीं आई थी। रेहड़ी वाले से कुछ पूछ भी नहीं सकता था, क्योंकि मेरा मित्र सोच सकता था कि वैसे तो अपने आपको बड़ा तीसमार खां समझता है और एक अदना से रेहड़ी वाले की इतनी-सी बात को भी समझ नहीं सका। इस स्थिति से उबरने के लिए मैंने भी रेहड़ी वाले को सुना दिया, ‘अच्छा! तभी तो केले के छिलकों से फिसल कर गिरने वालों का ‘ग्राफ़’ तेजी से गिर रहा है।’ मेरी बात सुनकर अब रेहड़ी वाला ‘हिल’ रहा था।
अगले दिन उस रेहड़ी के सामने से होकर गुज़रते हुए मैं अपनी साइकिल रोकने ही वाला था कि उस रेहड़ी वाले ने ख़ुद ही आवाज़ देकर मुझे रोक लिया और बोला, ‘साहब! यह ‘ग्राफ़’, और फिर इसका केले के छिलकों से फिसल कर गिरने वाले लोगों से क्या ताल्लुक होता है?’ अब मुझसे भी रहा न गया और मैं उसकी बात अनसुनी कर दबी ज़ुबान में पूछने लगा, ‘भाई! पहले यह बताओ कि डीज़ल और केले की आपस में क्या रिश्तेदारी है?’ रेहड़ी वाला धीमी आवाज़ में बोला, ‘साहब! डीज़ल का दाम बढ़ने से माल-भाड़ा जो बढ़ गया है!’ यह सुनकर मैं मन ही मन बोला, धत तेरे की! मैं भी कितना बेवकूफ़ था जो इतनी-सी बात भी न समझ सका।
खैर, अब मैंने रेहड़ी वाले को समझाना शुरू किया, ‘भाई, देखो! डीज़ल महंगा हुआ सो केले भी। अब केले महंगे हुए तो खरीदार कम हो गए, खरीदार कम हो गए तो उनमें पाए जाने वाले बेवकूफ़ भी कम हो गए जो खाने के बाद छिलके इधर-उधर फेंक देते थे। इधर-उधर बिखरने वाले छिलकों की कमी से ख़ुद-ब-ख़ुद फिसलकर गिरने वाले लोगों की संख्या पिछले सालों की तुलना में कम हो गई, इसी बात को हम गणित की भाषा में कहते हैं कि ‘ग्राफ़’ नीचे गिर रहा है।’
केले वाले को अपने जवाब से संतुष्ट हुआ देख मैं साइकिल पर सवार होकर चलने ही लगा था कि मेरी साइकिल का अगला पहिया रेहड़ी के पास ही पड़े केले के छिलके से फिसल गया। अब मैं नीचे था और साइकिल मेरे ऊपर। केले वाले की ‘मुस्कुराहट का ग्राफ़’ लगातार ऊपर की तरफ उठता ही जा रहा था।