हेमंत कुमार पारीक
आजकल मौसम के हिसाब से धंधे चलते हैं। कल तक लाला जी कपड़े बेच रहे थे। बारिश आने को है तो स्टॉक में छतरियां आ गयी हैं। गर्मी जाते ही आइसक्रीम का स्टॉक खत्म हो जाएगा। बोर्ड बदल गए। ठण्ड का माल स्वेटर, मोजे और ग्लोव्स नदारद हैं। इसी बीच चुनाव का मौसम आ गया। ऐसा मौसम तो बना रहता है सालभर। कभी पंचायत का, कभी पार्षद का तो कभी हमारे श्रेष्ठतरों का। मगर यह चुनाव श्रेष्ठतमों का है। इसलिए झण्डे और डण्डों का स्टॉक अलहदा रखा था। एक-डेढ़ महीने तक एक चुनाव चलता है। पर झण्डे और डण्डे में वैरायटी नहीं होती। हां, डण्डे अलग-अलग साइज में जरूर मिलते हैं। इसलिए स्टॉक के लिए ज्यादा जहमत नहीं उठानी पड़ती। झण्डे के लिए एक टेलर मास्टर को पिछवाड़े बैठा दो बस। झण्डे सिलने का काम बदस्तूर जारी रहता है। डण्डों के लिए कोई मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी नहीं होती। मोहल्ले के भाई को कहने भर की देर है। छोटे-बड़े हर साइज के डण्डे मिनटों में उपलब्ध हो जाते हैं।
अब देश का सबसे बड़ा बिजनेस तो श्रेष्ठतमों का ही चुनाव होता है। इसमें बड़े-बड़े व्यापारी से लेकर गांव कोटवार तक शामिल होते हैं। आम जनता की बात तो छोड़िए। दूध की दुहनिया है। खेल में होती भी है और नहीं भी। चुनावी धंधा तो एवरग्रीन माना जाता है। कपड़े बेचते-बेचते झण्डे का कोई ग्राहक आ गया तो लाला उसे पिछवाड़े भेज देता है। कहता है छांटो-बीनो, हर माल फिक्स! और डण्डों पर उनकी कीमत का टैग लगा होता है। हील-हुज्जत की जरूरत नहीं। डण्डे में ज्यादा भाव-ताव नहीं होता। मगर झण्डे में थोड़ी ऊंच-नीच तो चलती है। सो इस वक्त महाचुनाव हो रहे हैं। महोत्सव है। लाला जी ने झण्डे और डण्डे के भाव बढ़ा दिए हैं। अगर दीगर दिनों में कोई झण्डे की बात करता तो लाला कहता, छांटो बीनो…। कभी-कभी माल निकालना हो तो ऑफर डाल देता है। एक झण्डे के साथ एक फ्री। यह उस स्थिति में जब सट्टा बाजार में किसी पार्टी के भाव सबसे ऊंचे चले जाते हैं।
दरअसल, झण्डे का धंधा अंधा होता है। खरीदने वाले को भी अपनी पार्टी की औकात पता होती है। बहरहाल, चुनावी मौसम लाला जी के लिए ज्यादा मुनाफे का धंधा होता है। एक के चार करने का वक्त होता है। इस देश में चुनाव के देव कभी सोते नहीं हैं। हमेशा जाग्रत अवस्था में रहते हैं। इसलिए लाला का धंधा कभी मंदा नहीं होता। बारहमासी शीर्ष पर चलता है।