कान्हा नेशनल पार्क में ‘कान्हा म्यूजियम’ प्रकृति के इतिहास का खजाना है। जीव जन्तुओं के पैरों के निशानों के मड-मार्क हैं और छोटे-बड़े जानवरों के कंकाल भी। इन्हें देख-देख कर कान्हा जंगल की रहस्यमय बारीकियों को करीब से जानने का मौका मिलता है।अमिताभ स.
मध्य प्रदेश को ‘स्टेट ऑफ टाइगर’ के तौर पर भी जाना जाता है। बताते हैं कि मध्य प्रदेश के जंगलों में 350 टाइगर हैं। पूरे मध्य प्रदेश के टाइगरों में से आधे से जरा कम मध्य प्रदेश के कान्हा नेशनल पार्क में हैं, बांधवगढ़ और पन्ना के जंगलों से भी ज्यादा। एशिया के घने जंगल ‘कान्हा नेशनल पार्क’ में 140 से ज्यादा टाइगर हैं। इसमें जीप के जरिए रोजाना सुबह 6 से 10 बजे तक और फिर शाम 4 से 6 बजे तक सैर कर सकते हैं। अग्रिम बुकिंग करा कर चाहें तो कान्हा के एकदम बीचों-बीच बने ‘फोरेस्ट रेस्ट हाउस’ में रात ठहर सकते हैं। कान्हा ईस्ट में सतपुड़ा से लेकर वेस्ट में विंध्य तक 500 किलोमीटर लम्बे-चौड़े जंगल में फैला है। मंडला और बालाघाट जिलों का 198 वर्ग किलोमीटर एरिया टाइगर रिजर्व का हिस्सा है।
ज्वेल ऑफ कान्हा
कौन है ‘ज्वेल ऑफ कान्हा’? टाइगर नहीं, बारहसिंहा को ‘ज्वेल ऑफ कान्हा’ कहते हैं। हिरण की एक प्रजाति है बारहसिंहा। मध्य प्रदेश बारहसिंहा को बचाने की भरसक कोशिशें करता रहा है। 1970 के दशक के आखिरी सालों में यहां करीब 50 बारहसिंहा थे। निगरानी, ख्याल और सुरक्षा के माहौल में आज इनकी तदाद 500 पार कर चुकी है। इस हद तक कि कान्हा के रास्तों पर इनके झुंड के झुंड साफ तौर पर दिखाई देते हैं। यहां टाइगर और बारहसिंहा ही नहीं, 200 से ज्यादा जीव-जन्तु भी रहते हैं। बाघ, तेन्दुआ, सोन कुत्ते, चीतल, सांभर और नीलगाय हैं। और हैं लकड़बग्घा, सियार, साही, खरगोश वगैरह भी। कुछ परिन्दे जंगल के स्थानीय वासी हैं, तो कुछ देश के दूसरे हिस्से से आते हैं।
परिन्दों में मोर, जंगली मुर्गी, तीतर और बटेर ही नहीं, सीखपर, बगुले और गिद्ध भी यहां-वहां नज़र आते हैं। उल्लू जैसे रात में निकलने वाले पक्षी भी बड़ी तादाद में दिखाई देते हैं। यहां नाग और फुसो ज़हरीले सांप हैं और अजगर, कौरियाला वगैरह ज़हर के बगैर सांप भी। गोह, गिरगिट और अन्य किस्म की छिपकलियों का डेरा भी यहां है।
लहरदार घास का जंगल
कान्हा में ज्यादातर लहरदार घास के मैदान हैं। चीतल, सांभर, बारहसिंहा, चौसिंहा और नील गाय इधर-उधर टहलती-फिरती खुलेआम दिखाई देती हैं। घास के मैदान शाकाहारी जीवों के घर हैं और शिकारी लुकाछिपी खेलते हैं। जंगल में दीमक की बांबियां फैली हैं। आमतौर पर, दीमक की बांबी के पास सूखी लकड़ी या ठूंठ होता है। यह कच्चा माल है, जिसे मिट्टी और लार के साथ मिलाकर बांबी बनाई जाती है। बांबियां 2-3 मीटर तक ऊंची होती हैं। इनमें एक दीमक की रानी और बाकी हजारों उसके मजदूर-सैनिक रहते हैं। दीमक सामाजिक कीड़ा है, इसलिए बड़ी बस्तियां बसा कर रहते हैं। एक-एक बांबी में 5 लाख तक दीमकें रहती हैं। सबसे दिलचस्प है कि भालू दीमक खाने का शौकीन होते हैं। भालू बांबी को नाखूनों से चीर कर, दीमक को मुंह में खींच कर निगल लेता है। ऐसे नज़ारे इस जंगल में देख सकते हैं।
कान्हा टाइगर रिजर्व की 965 किलोमीटर लम्बी कच्ची सड़कें महज सड़कें नहीं हैं। यही सड़कें अग्नि रक्षा रेखा का अहम रोल निभाती हैं। अग्नि रेखा पर उगे झाड़-झंखाड़ों को समय-समय पर काट-काट कर जलाते हैं, ताकि जंगल की आग को फैलने से रोका जा सके। वरना तेज हवाओं से आग तेजी से बेकाबू हो कर फैल उठती है। और मीलोंमील जंगल को राख कर सकती है। यहां-वहां ढेरों नाले, झरने, बांध, तालाब वगैरह कुदरती-गैर कुदरती पानी की स्रोत हैं।
जंगल में छोटे-बड़े कई दलदल भी हैं। बारहसिंहों और जंगली सूअरों को दलदल खूब पसंद है। क्यों? क्योंकि इन्हें दलदल पर लोटने और जलीय पौधे खाने में मजा आता है। कुछ जानवर अपने बदन पर जान-बूझकर कीचड़ लेप लेते हैं, ताकि कीड़े-मकौड़ों से बचा जा सके।
टाइगर का दीदार
कान्हा की जमीन और पेड़ों के तनों पर जानवरों के पंजों और नाखूनों के निशान आम हैं। ज्यादातर निशान टाइगरों के हैं। टाइगरों को खोजने और देखने के दो तरीके हैं। पहला है जीप पर कान्हा जाएं। अपनी सूझ- बूझ और दूरदृष्टि से टाइगर की दिशा का अंदाजा लगाएं और वहां-वहां पहुंच जाएं। आप की मदद के लिए पैनी नजर से लेस गाइड तो हैं ही। मिट्टी पर टाइगर के पंजों के निशानों का पीछा करते-करते जंगल के राजा को खोजा जा सकता है। ऐसे खासी मशक्कत होती है। बावजूद इसके मुमकिन है कि टाइगर के दीदार से महरूम ही रह जाएं। या फिर, दूसरे तरीके से शर्तिया टाइगर देख सकते हैं। इसे ‘टाइगर शो’ कहते हैं। इसकी बाकायदा बुकिंग होती है। इसके तहत जीपों पर चढ़कर, घने जंगल के भीतर टाइगर के सम्भावित डेरे तक जाते हैं।
हाई फाई रेडियो सिस्टम के जरिए टाइगर की हरकतों पर पैनी नजर रखी जाती है। आगे हाथी पर बैठ टाइगर का दीदार करना वाकई एक यादगार अनुभव है। हाथी पर सवार टूरिस्ट देखते हैं- टाइगर ने जंगली सूअर का शिकार किया और चार अन्य टाइगरों के साथ मिलकर, मस्ती से गोश्त खा रहे हैं। पेट भर-भर कर, हर टाइगर उठ-उठ कर जाने लगता है। हाथी पर चढ़े टूरिस्टों की टाइगर से दूरी महज 9 फुट होती है। हू-ब-हू नेशनल जियोग्राफिक चैनल सेंसर की कैंची के बगैर लाइव सामने होता है।
श्रवण ताल और…
कान्हा में और है श्रवण ताल। पौराणिक कथा है कि सदियों पहले इसी तालाब पर श्रवण कुमार अपने दृष्टिहीन माता-पिता के लिए पीने का पानी लेने गया था। राजा दशरथ ने श्रवण कुमार की सुराही में पानी भरने की आवाज को किसी जानवर के पानी पीने की आवाज समझा और झटपट शब्दभेदी बाण से बेध दिया। नेशनल पार्क बनने तक यहां हर मकर संक्रान्ति को मेला लगता था। अब मेला तो नहीं लगता, केवल स्थानीय लोगों को उस रोज तालाब में स्नान करने की अनुमति दी जाती है। नजदीक ही है श्रवण चिता, जहां आदर्श पुत्र का अन्तिम संस्कार किया गया था। और श्रवण ताल के ऐन सामने चोटी पर है दशरथ मचान। यहीं बैठकर, राजा दशरथ ने अनजाने में अभागा बाण चलाया था। इस पहाड़ को मचान डोंगर कहते हैं।
कान्हा नेशनल पार्क में ‘कान्हा म्यूजियम’ प्रकृति के इतिहास का खजाना है। जीव जन्तुओं के पैरों के निशानों के मड-मार्क हैं और छोटे-बड़े जानवरों के कंकाल भी। इन्हें देख-देख कर कान्हा जंगल की रहस्यमय बारीकियों को करीब से जानने का मौका मिलता है।
‘भारत का दिल’ कितनी दूर
मध्य प्रदेश को ‘भारत का दिल’ कहते हैं। क्योंकि इसकी लोकेशन देश के एकदम बीचोंबीच है। और फिर, इसकी सरहद 6 राज्यों को छूती है।
ज्यादातर चट्टानी है, फिर भी सब रंग हैं- पहाड़, नदियां और मीलोंमील घने जंगल। असल में, मध्य प्रदेश का ज्यादातर हिस्सा वाइल्ड लाइफ से सराबोर है।
दिल्ली से कान्हा 980 किलोमीटर दूर है। सड़क से पहुंचने में 22 घंटे लगते हैं। वीकेंड पर जाना ठीक नहीं, क्योंकि हाइवे पर ट्रैफिक मिलता है। ट्रेन और प्लेन से जाएं, तो नजदीकी ठिकाना जबलपुर है। जबलपुर से करीब 165 किलोमीटर दूर है।
दिल्ली से कान्हा जाने का बेस्ट जरिया शताब्दी ट्रेन है। दिल्ली से रोज शताब्दी ट्रेन भोपाल आती-जाती है। आगे जबलपुर के रास्ते कान्हा पहुंचते हैं। जबलपुर में नर्मदा में बोटिंग और धुआंधार में झरने की बौछारें भरपूर रोमांच से लबालब भर देती हैं।
मानसून के दौरान, जुलाई से अक्तूबर के बीच कान्हा बंद रहता है। बाकी सारा साल कभी भी जा सकते हैं। लेकिन गर्मियों में जाने से परहेज करना चाहिए क्योंकि पूरा इलाका तपता है।