अखिलेष आर्येन्दु
वैदिक परम्परा में जिन चार पुरुषार्थों को जीवन निर्माण के लिए आवश्यक माना गया है, उनमें पहला धर्म और चौथा पुरुषार्थ मोक्ष है। हम कह सकते हैं जीवन निर्माण की पहली सीढ़ी धर्म है और अंतिम सीढ़ी मोक्ष। मोक्ष परम आनंद की दशा है, जो जीवन खत्म होने के बाद ही कर्मों की स्थिति के अनुसार मिल सकता है। योग दर्शन में साधना की सफलता के लिए चित्त की वृत्तियों का निरोध आवश्यक माना गया है। यह निरंतर अभ्यास के जरिए ही सम्भव होता है। जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तो सर्वज्ञ परमेश्वर के स्वरूप में चित्त की वृत्ति स्थिर हो जाती है। लेकिन हर समय, चित्त की वृत्ति का निरोध सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवन व्यवहार में रोजाना कई तरह के ऐसे कार्य करने होते हैं, जो चित्त की वृत्तियों के निरोध रहते सम्भव ही नहीं है। इसलिए साधक को ऐसा अभ्यास आवश्यक है कि योग साधना के समय चित्त की वृत्तियों का निरोध करे और सांसारिक जीवन में उससे बाहर निकल आए। यह ऐसा है कि कोई अधिकारी जब तक अपनी ड्यूटी पर रहे तब तक ड्यूटी और सरकारी नियमों का पालन करता रहे, और जब ड्यूटी पूरी कर घर आए तो अपने जीवन व्यवहार के मुताबिक हो जाए।
ईश्वर का साक्षात्कार और आत्म साक्षात्कार दोनों अलग-अलग चीजें हैं। दोनों के लिए योग साधना में कुछ नियम बनाए गए हैं। जैसे जीवन के चार पुरुषार्थ हैं, जिनमें धर्म पहला है। धर्म का पालन करने से ही अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इसी तरह ईश्वर के साक्षात्कार के लिए आवश्यक है कि साधक सबसे पहले आत्म साक्षात्कार कर ले। क्योंकि आत्म साक्षात्कार के बगैर ईश्वर का साक्षात्कार हो ही नहीं सकता। इसका कारण यह है कि ईश्वर का साक्षात्कार मन के जरिए नहीं हो सकता। मन अति चंचल है। मन की चंचलता व मूढ़ता के कारण ही व्यक्ति वह कार्य करता है जो उसे नहीं करना चाहिए। इसलिए गीता में मन की चंचलता व मूढ़ता को साधक और सांसारिक लोगों के लिए अच्छा नहीं माना गया है। क्योंकि संकल्प-विकल्प का सबसे बड़ा कारण मन की चंचलता व मूढ़ता है। जब मन की चंचलता मिट जाती है तो सभी तरह के मनोविकार और विषय-वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, यह स्थिति योगी के लिए आवश्यक है, लेकिन सांसारिक व्यक्ति के लिए ठीक नहीं है। ऐसे अनेक कार्य हैं जो मन की चंचलता के साथ पूरे होते हैं। यह जरूर है कि मन अति चंचल नहीं होना चाहिए। यह किसी के लिए ठीक नहीं है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि सत, रज और तम तीनों तरह की स्थितियों, वृत्तियों, भावों, व्यवहारों और कार्यों की अच्छाई और खराबी को बेहतर ढंग से समझा जाये। इसी तरह आहार-विहार और आचार-विचार में भी सात्विकता, राजसिकता और तामसिकता को समझना आवश्यक है।
सात्विक विचार, कार्य, व्यवहार, संस्कार और वृत्तियों वाले व्यक्ति को ही आत्म साक्षात्कार हो सकता है। आत्म साक्षात्कार हो जाने पर सिद्धियों और निधियों की प्राप्ति आसान हो जाती है। मन से अपनी सारी गतिविधि चलाने वाला व्यक्ति आत्मा के जरिए चलाने लगता है। धीरे-धीरे व्यक्ति ईश्वर का हो जाता है। उसका जीवन, व्यवहार, बातचीत सब कुछ विलक्षण हो जाता है। उसके चेतन-अवचेतन मन की स्थितियों में सदा पारिवारिक, सांसारिक सभी तरह के कार्यों में विलक्षणता दिखाई देने लगती है। जब व्यक्ति अपने को परमात्मा से युक्त पाता है, उसकी मानसिकता जब प्रभु को अर्पित हो जाती है, तो काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसे आध्यात्मिक स्पर्धा करने वाले विकारों के सामने वह पराजित नहीं होता। ऋग्वेद में कहा गया है- हे प्रभु! तुमसे युक्त होकर हम विजयी बन जाते हैं। यानी उस परमपिता परमात्मा को प्राप्त करने के बाद और कुछ प्राप्त करने काे नहीं रह जाता है।
आत्म साक्षात्कार का मतलब है कि हमने अपने वास्तविक स्वरूप को देख और जान लिया है। जब अपने वास्तविक स्वरूप को देख लिया, तो इसकी स्थिति और गतिविधि को भी समझना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे हमने मन को अपने अनुसार चलाना शुरू कर दिया और आगे बढ़ते हुए जो करना चाहिए, उसे करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि जब तक हम मन के अधीन होकर सारी कवायदों को कर रहे थे, तब तक जैसा मन कराता था वैसे करते जाते थे। इसलिए कभी हार होती थी तो कभी जीत। लेकिन आत्म साक्षात्कार के बाद हालात एकदम बदल गये। अब जीवन कल्याण या निर्माण के लिए जो करना चाहिए, उसे ही करना शुरू कर दिया। यह धर्म, स्वर्ग और मोक्ष का रास्ता है। इसलिए सामान्य कर्म करते हुए यह विचार जरूर करें कि जो कर्म कर रहे हैं वह मन के वशीभूत होकर यानी मन की गुलामी करते हुए कर रहे हैं कि पूरी तरह स्वतंत्र होकर? इससे कर्मों के प्रति गम्भीरता बढ़ेगी और शुभ संकल्प वाले उद्देश्य पूरे होने शुरू होंगे। करना इतना है कि कर्म करने के पहले कर्म को समीक्षा के दायरे में लाएं। यह अलौकिक और लौकिक दोनों स्थितियों के लिए जरूरी है।