एक बार आदि शंकराचार्य अपने अनुयायियों के साथ काशी भ्रमण पर थे। वहां उनकी मुलाकात एक विद्वान वृद्ध ब्राह्मण से हुई। वह पाणिनी के व्याकरण नियमों में पारंगत था। तकनीकी रूप से वह संस्कृत के वाक्यों और शब्दों की व्याख्या करने में पूर्ण समर्थ था। शंकराचार्य को प्रभावित करने के उद्देश्य से उसने व्याकरण के नियम के पाठ दोहराने शुरू कर दिए। जब वह अपने ज्ञान के प्रदर्शन से निवृत्त हुआ तो शंकराचार्य जी ने उससे कहा, ‘इस उम्र में व्याकरण में अपने जीवन का अमूल्य समय क्यों बर्बाद कर रहे हो। यह तो एकमात्र भौतिक उपलब्धि है, मृत्यु के समय व्याकरण कोई काम नहीं आएगी। जीवन के अंतिम समय में मनुष्य द्वारा अर्जित सब विद्यायें, कलाएं व्यर्थ हो जाती हैं। किताबी ज्ञान में समय बर्बाद न करो। भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति, तृष्णा मोह माया छोड़ो और भगवान का भजन करो। इसी से तुम्हारे लिए मोक्ष का द्वार खुलेगा।’ बताते हैं इस घटना के बाद ही आदि शंकराचार्य ने प्रसिद्ध स्त्रोत ‘भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते…।’ की रचना की।
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा