एक बार एक व्यक्ति संत एकनाथ जी के पास आया और बोला, ‘महाराज! मुझे भगवद्प्राप्ति का कोई सरल उपाय बताइये। मैं आपके पास यही जिज्ञासा लेकर आया हूं।’ एकनाथ जी ने उससे पूछा, ‘तुम अकेले रहते हो या विवाह कर चुके हो?’ ‘नहीं महाराज! मेरा विवाह हो चुका है, परंतु मैं स्त्री और बच्चों का त्याग कर भगवद्प्राप्ति हेतु सदा के लिए आपके पास आया हूं।’ शिष्य ने उत्तर दिया। महाराज बोले, ‘क्या तुम्हारी पत्नी और बच्चों ने तुम्हें आने के लिए अनुमति दी है?’ उसने जवाब दिया, ‘नहीं महाराज! वे लोग सो रहे थे, तभी मैं नींद में उन्हें छोड़कर भाग आया, क्योंकि जगे में वे मुझे कभी आने की अनुमति नहीं देते। मैंने घर-गृहस्थी का संपूर्णता से त्याग कर दिया है। अब भगवद्प्राप्ति में लगना चाहता हूं, इसलिए आप मुझे निराश न करें।’ ‘मूर्ख, जिस भगवान की प्राप्ति के उद्देश्य से तू यहां आया है, वह तो तुम्हारे घर में ही मिल जायेगा। अपने पत्नी-बच्चों को छोड़कर अपने कर्तव्यों को त्याग देने से तू क्या समझता है कि भगवान तुझ पर खुश हो जायेंगे? नहीं। त्याग अपने मन के विकारों का करना होता है, आत्मीयजनों का नहीं। त्याग संसार की विषय-वासनाओं का किया जाता है। जाओ और अनासक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करो, इसी में तुम्हारा कल्याण है। भगवान इसी से तुम पर खुश होंगे।’
प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार