नीलम महेंद्र
जब चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा के सूर्योदय के साथ सम्पूर्ण भारत के घर-घर में लोग अपने इष्ट देवी-देवता का अपनी-अपनी परंपरा अनुसार पूजन करके नवसंवत्सर का स्वागत कर रहे होते हैं, तो विश्व इस सनातन संस्कृति की ओर कौतूहल से देख रहा होता है। क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से पूर्वोत्तर तक लोग इस दिन को उगादि, नवरेह, नवरात्र, गुढ़ी पड़वा, जैसे त्योहारों के रूप में मना रहे होते हैं, पावन नदियों की पूजा कर रहे होते हैं, मंदिरों में मंत्रोच्चार के साथ शंखनाद और घंटनाद चल रहा होता है, तो यह पूजन अपने लिए नहीं होता। क्योंकि अपने लिए जब मनुष्य पूजा करता है तो अकेले कर लेता है, कभी भी कर लेता है कहीं भी कर लेता है, कैसे भी कर लेता है। कभी करता है, कभी नहीं भी करता। लेकिन चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि को वो केवल जीवन जीता ही नहीं है, वो इस दिन को मनाता भी है। इस दिन वो कृतज्ञता प्रकट करता है उस प्रकृति के प्रति जिसने उसके खेतों को फसलों से भर दिया, वो आभार व्यक्त करता है उन फसलों का जो उसकी खुशहाली की प्रतीक हैं, वो शुक्रिया अदा करता है उस सृष्टि का जिसने उसे इतना कुछ दिया, और वो नतमस्तक होता है उस परम पिता परमेश्वर के आगे जो इस सृष्टि का पालनहार है। इसलिए यह पूजन उसके खुद के लिए न होकर सम्पूर्ण सृष्टि के लिए होता है, प्रकृति के लिए होता है, मानव समाज के लिए होता है, पशुओं-पक्षियों के लिए होता है, फल देने वाले पेड़ों के लिए होता है, फसलों-पौधों और सबकी सुख-समृद्धि के लिए होता है। चूंकि अच्छी फसल पर केवल वो किसान ही नहीं निर्भर होता जिसने खेतों में साल भर मेहनत की होती है, बल्कि हम सभी निर्भर होते हैं। इसलिए यह दिन एक त्योहार बन जाता है, जिसमें मनुष्य बीते हुए साल के लिए कृतज्ञता प्रकट करता है, आने वाले साल के लिए आशीर्वाद की मंगलकामना करता है।
सालों से चलने वाली यह परंपरा हर भारतीय घर की संस्कृति का हिस्सा है। शायद इसलिए पूरी दुनिया के साथ मौज मस्ती करते हुए झूमते-नाचते हुए हम भारतीय भी भले ही पहली जनवरी को न्यू ईयर पार्टी में जाते हों, लेकिन नववर्ष तो अपने इष्टदेव के समक्ष दीप प्रज्वलन के साथ ही मनाते हैं। तारीख़ें देखने के लिए भले ही अंग्रेजी कैलेंडर लाते हों लेकिन तिथियां तो पंचांग में ही देखते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु, गृह प्रवेश से लेकर भूमिपूजन, मुंडन से लेकर विवाह तक शुभ मुहूर्त तो विक्रम संवत् से ही निकालते हैं।
उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ईसाई युग से 57 साल पहले विक्रम संवत शुरू किया गया था, जिसकी वैज्ञानिकता के आगे आज भी आधुनिक विज्ञान बहुत बौना साबित होता है। दरअसल जब पश्चिमी सभ्यता में गैलेलियो को उनकी खोजों के लिए सज़ा दी जा रही थी, तब भारत ब्रह्मांड के रहस्य दुनिया के सामने खोलता जा रहा था। इसी कालगणना के आधार पर जब हिन्दू नववर्ष का आगमन होता है तो इसकी वैज्ञानिकता का प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है कि केवल मानव मात्र इसे एक उत्सव के रूप में नहीं मनाता अपितु प्रकृति भी इस खगोलीय घटना के स्वागत को आतुर दिखाई देती है। महीनों से खामोश कोयल कूकने लगती है, पक्षी चहचहाने लगते हैं, पेड़ नए पत्तों से सज जाते हैं, बगीचे रंग-बिरंगे फूलों से खिलखिला उठते हैं, पूरी धरती लाल, पीली, हरी चुनरी ओढ़कर इठला रही होती है, और सर्द मौसम वसंत की अंगड़ाई ले रहा होता है। क्या पौधे क्या जानवर सभी एक नयी ऊर्जा, एक नयी शक्ति का अनुभव कर रहे होते हैं। ऐसे में शक्ति की उपासना के साथ नवसंवत्सर के स्वागत से बेहतर और क्या हो सकता है।
यही सनातन संस्कृति और परंपराएं हमारी पहचान हैं।
(साभार : डॉ.नीलममहेंद्रा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम)