महामना मालवीय जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एक बंगले में रहते थे। उनसे मिलने वालों में गांव-कस्बे के निर्धन लोग भी होते थे। वे प्राय: बिना आवाज दिये ही उनके कक्ष में आ जाते और मेज पर पड़ी चिट्ठियों को पढ़ने लग जाते। एक दिन मालवीय जी के पुत्र ने उनसे शिकायत की, ‘पिताजी, सब तरह के आदमी नि:संकोच कमरे में आ जाते हैं। यह अच्छा नहीं लगता।’ मालवीय जी ने कहा, ‘ये लोग जान-बूझकर ऐसी धृष्टता नहीं करते। शिष्टता से अनभिज्ञ होने के कारण बेचारे सरल भाव से चले आते हैं।’ पुत्र ने कहा, ‘ पिताजी, आगे से मैं इन्हें यह सब नहीं करने दूंगा।’ मालवीय जी पुत्र के रोष को देखकर दृढ़ स्वर में बोले, ‘तुम्हारी बात मुझे बेजा और बेतुकी लगी, बेटा! जब तक मैं इस बंगले में हूं, मेरा आदेश है कि ये गरीब लोग बिना रुकावट के इस कमरे में आते-जाते रहेंगे।’ प्रस्तुति : राजकिशन नैन