रोकें भ्रमजाल
चुनाव का बिगुल बजते ही लुभावने वादों के साथ जन प्रतिनिधि जनता के दरबार में सेवक की भांति पेश होते दिखाई देते हैं। गरीबी उन्मूलन, बेरोज़गारी दूर करना, मुफ्त बिजली-पानी, मकान, मुफ्त शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं, किसानों का कर्ज़ माफ़ व उनकी आय दोगुनी करना ये ऐसे कुछ वादे हैं जिन्हें अपने चुनाव घोषणा-पत्र में शामिल कर राजनीतिक पार्टियां सालों से अपनी रोटियां सेंकती आ रही हैं। चुनाव घोषणा-पत्र इनके लिए महज़ एक विज्ञापन से ज्यादा कुछ भी नहीं होता। बेहतर होगा अगर निर्वाचन आयोग, राजनीतिक दलों द्वारा जारी चुनाव घोषणा पत्रों पर ही रोक लगा देे।
रतिका ओबरॉय, चंडीगढ़
जवाबदेही तय हो
चुनाव आते ही घोषणापत्रों का भ्रमजाल छाने लगता है। शब्दजाल व आंकड़ों की बाजीगरी का बोलबाला हो जाता है। घोषणा पत्र राजनीतिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है जिस पर जवाबदेही समय की मांग है। कानून बने, जिसमें ऐसा प्रावधान हो, जिसके तहत राजनीतिक दलों को वादे पूरे नहीं करने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सके। नेता भी जानते हैं कि हकीकत के धरातल पर हर वादा पूरा करना संभव नहीं फिर भी झूठे वादे कर निष्पक्ष चुनाव की जड़ को हिलाना क्या उचित है?
रवि नागरा, नौशहरा, साढौरा
समय सीमा तय हो
जब-जब चुनाव का दौर शुरू होता है तब-तब पार्टियां सत्ता हासिल करने के लिए घोषणा पत्रों को तैयार करने के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ती। सत्ता हासिल करने के बाद घोषणा पत्र को लागू करना भूल जाते हैं और केवल कागजों में ही सिमट कर रह जाते हैं। इस मामले पर निर्वाचन आयोग को घोषणा पत्र लागू करवाने के लिए तय सीमा सुनिश्चित करनी चाहिए। अगर यह तय सीमा में लागू नहीं होता है तो आयोग को सतारूढ़ पार्टी के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा देना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसे भ्रम फैलाने वाले घोषणा पत्रों से बचा जा सके।
संदीप कुमार वत्स, चंडीगढ़
जिम्मेदार बनायें
चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं। सभी राजनीतिक पार्टियों में जनता के लिए लुभावने घोषणा पत्र लाने की होड़ मची हुई है। चुनाव जीतने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां प्रयत्न करती हैं लेकिन हकीकत के धरातल पर हर वादा पूरा करना संभव नहीं होता। जनता इन घोषणा पत्रों के जाल में फंस कर अपने को ठगा-सा महसूस करती है। राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि वादे वही किए जाएं जो पूरे किए जा सकें। चुनाव आयोग व उच्च न्यायालय सुनिश्चित करे कि विभिन्न पार्टियों द्वारा दिए गए प्रलोभन राजनीतिक दलों द्वारा पूरे किए जाएं।
पूनम कश्यप, बहादुरगढ़
सजग मतदाता
चुनाव से पूर्व हर राजनीतिक पार्टी अपने घोषणा-पत्र में लोकलुभावनी घोषणाएं करती हैं। इसलिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं ताकि घोषणा पत्र में ऐसी बातें रखी जाएं, जिससे जनता को अपनी ओर आकर्षित किया जा सके। परन्तु अब जनता इन राजनेताओं के वादों, घोषणाओं से पूरी तरह सावधान रहती है। बेशक अब ये कितनी ही बातें कह लें, कितनी ही रैलियां कर लें, उन्हें पता है कि किसे वोट देना है और किसे पटखनी देनी है। जनता अब सारा जोड़-तोड़ कर पार्टी अथवा उम्मीदवार को वोट देती है।
सत्यप्रकाश गुप्ता, गुरुग्राम
जनता की नियति
हिंदी में एक कहावत है कि ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’। यह कहावत राजनीति दलों के चुनावी घोषणा पत्रों पर सटीक बैठती है। चुनाव चाहे लोकसभा के हो या फिर विधानसभा के, राजनीतिक दल जनता को छलने के लिए लोकलुभावन घोषणा पत्र जारी करते हैं और चुनाव जीतने के बाद घोषणा पत्र में किए गए वादों पर बहुत ही कम खरे उतरते हैं। जनता हर बार नेताओं के शब्दजाल और आंकड़ों की बाजीगरी के जाल में फंस जाती है। अब चुनावों में ठगा जाना जनता की नियति बन गई है।
राम मूरत ‘राही’, इंदौर, म.प्र.
पुरस्कृत पत्र
सख्त हो आयोग
पांच साल बाद होने वाले चुनाव में हर बार नया घोषणा पत्र और नये वादे लेकर नेता लोग जनता के बीच में आते हैं। चुनाव के समय जनता को भ्रमित करने के लिए जनप्रतिनिधियों द्वारा इतने सारे झूठे और खोखले वादे किए जाते हैं शायद दूसरे देशों के लोग इस पर हंसते होंगे कि यह कैसा प्रजातंत्र विकसित कर लिया है, जहां केवल थोथे नारे लगाने वालों की बात को ही सुना जा रहा है। इन नारों और वादों को रोक पाना आम आदमी के बस की बात नहीं है, इसलिए चुनाव आयोग को सख्त निर्णय लेना चाहिए कि जो नेता या पार्टी अपने घोषणा पत्र को पांच साल में लागू नहीं कर पाएगी उस पार्टी की मान्यता रद्द कर दी जाएगी। तब देखें कौन कितने वादे करता है।
जगदीश श्योराण, हिसार