अशोक भाटिया
मां अकेली रहती है। वह बुड्ढी-ठेरी हो चुकी है, पर पिता के जाने के बाद उसने एकांत चुना है। शरीर खोखला हो चुका है, टांगें बेतरह सूजी हुई हैं। लगता है, मौत के बिल्कुल नजदीक पहुंच चुकी है। दो बार मौत बूढ़ी मां को दगा दे चुकी है या बूढ़ी मां मौत को, कहा नहीं जा सकता। वैसे मां कई बार कह चुकी है कि अपनी उम्र तो वह खा चुकी है। अब तो अन्न को गन्दा करने वाली बात है। क्या मौत से पहले इसके आने का अहसास हो जाता है, मां की बातों से तो ऐसा ही लगता है। आज मां से बेटा-बहू मिलने आए हैं। पास के शहर से। मां दोनों से कुछ बतियाती है। फिर उठकर अलमारी से एक लिफाफा निकालती है।
‘यह मैंने नया सूट सिलवा लिया है।’ मां गहन-गंभीर मुद्रा में बेटे की तरफ लिफाफा बढ़ाती है। बेटा हतप्रभ है।
‘समझ गई।’ कहकर बहू लिफाफा लेकर खोलती है। सूट पर छोटे-छोटे फूल खिले हैं। मां को फूलों से हमेशा लगाव रहा है। बेटा समझ गया है कि मां फूलों के साथ जाने का इंतजाम कर रही है। अपनी मौत के बारे सोचना भी कितना भयावह है, उसके इंतजाम की बात तो… इसके लिए गज-भर का कलेजा चाहिए। क्या यह हर मां के पास होता है या मौत से साक्षात्कार कर मन मजबूत हो जाता है…
कमरे में गहरी चुप्पी छा गई है। मौसम में उमस है। मां जमीन की तरफ देख रही है। गहरी सोच में डूबी हुई। वह बेटे को बताती है—तेरे पिताजी अपनी संदूकड़ी में हड्डी जैसी कोई चीज़ कपडे में बांधकर छोड़ गए हैं। शायद किसी अनहोनी से बचाने को…।
‘दिखाओ।’ बेटा एक डर के साथ जी कड़ा करके कहता है।
‘नहीं, तुझे हाथ नहीं लगाने देना, पता नहीं क्या है? मैं किसी दिन जाकर पानी में प्रवाहित कर दूंगी।’ मां जैसे नींद से जागती है। सुनकर बेटा चुप्पी साध लेता है। ओफ्फ़! जाने की तैयारी में भी मां उसका कितना ख्याल रख रही है। मां जान गई है कि वह कभी भी शरीर छोड़ सकती है, इसीलिए वह यह सब बता रही है कि हमें सब पता रहे।
बेटा मां को ध्यान से देखता है। फिर उसका ध्यान सामने दीवार पर लगाए एक रुपये के फ्रेम किए नोट पर चला जाता है। वह मां से पूछता है–‘और यह खजाना! शायद घर में रिजक आए, इसलिए लगा रखा है! मैं ले जाता हूं।’ इस काम में कोई खतरा भी नहीं था। मां की सोच का प्रवाह सहसा रुकता है। वह कहती है–‘इसे तू मेरे मरने के बाद ले जाना।’ विकार से निर्विकार की तरफ बढ़ती हुई भी मां अपनी नजरें दीवार पर टंगे नोट पर टिका देती है…