मोहन मैत्रेय
विश्व के समस्त छोटे-बड़े देशों में लोगों की संख्या में नित्य-प्रति बेतहाशा वृद्धि हो रही है, परंतु इनमें इंसानियत का प्रतिशत नित्य-प्रति घटता जा रहा है। यह चिंतन तथा चिंता का विषय है। डॉ. नन्दितेश द्वारा रचित पुस्तक ‘आइये इंसान बनें’ इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है। संदर्भ में एक कथन अत्यंत सार्थक है–भौतिकवाद की ओर हमारी निरंतर त्वरित हो रही दौड़ में, एक समाज के रूप में हम अपनी मूल्य प्रणालियों के साथ अपने जुड़ाव को खोते जा रहे हैं और यह एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसका रुख बदले जाने की जरूरत है।
पुस्तक में चार अध्याय हैं–ताकत का गुरूर, सबसे बड़ा रुपैया, पद नाम की दौड़, मानस मूल्यों की बातें। प्रथम तीन अध्यायों में प्रतिस्पर्धा के क्षेत्रों का विश्लेषण है तो अंतिम अध्याय में मानवीय मूल्यों का विवेचन। ताकत (सत्ता) विषयक लेखक का कथन अत्यंत सार्थक है–सत्ता व्यक्ति में एक खास तरह की मानसिकता का निर्माण करती है जो किसी की परवाह नहीं करती। वह पहले उसे किसी भी उपाय से सत्ता हथियाने के लिए उत्प्रेरित करती है और फिर उस सत्ता को बरकरार रखने में उसे व्यस्त कर देती है। इस दश्ाा में सामूहिक कल्याण या लाभ गौण हो जाता है और लोभ प्रधान।
कहावत है ‘बाप बड़ा न भैय्या, सबसे बड़ा रुपैया।’ आज प्रत्येक व्यक्ति की यह धारणा बनती जा रही है कि उसके पास जितना धन होगा, वह उतना ही मूल्यवान समझा जाएगा। यही स्थिति राष्ट्र की भी है। जितना अधिक पैसा किसी राष्ट्र के पास होगा, वह उतना अधिक प्रभावी होगा। मध्य वर्ग इस परिवर्तन से अधिक प्रभावित हुआ है। व्यक्ति कितना भी सफल क्यों न हो, पर उसकी पहचान उसकी सम्पत्ति से ही होती है। लेखक का यह निष्कर्ष सार्थक है कि पैसे की हवस और अभूतपूर्व लालच के इस दौर में अच्छा इनसान मिलना अब एक विरल घटना है।
रचनाकार के अनुसार आज प्रत्येक व्यक्ति नामवर बनने के प्रयास में है। ‘मैं कौन हूं’ से ज्यादा महत्वपूर्ण अब यह है कि ‘मैं क्या हूं।’ बॉस शब्द का उच्चारण भी सम्मानदायक और दीर्घ स्वर से होता है। लेखक का निष्कर्ष है ‘वित्तीय और प्रोफाइल वैल्यू ने ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और आगे निकलने का होड़ इतनी बढ़ा दी है कि विकास का लाभ, पात्र व्यक्ति को न मिलकर अन्य को मिलने लगा है।’
उपभोक्तावादी युग में मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में किस विकल्प का चयन हो–अच्छा इनसान बनने का या शक्तिशाली बनने का? रचनाकार का निष्कर्ष है कि हमारे सभी मूल्यों को मानवीय मूूल्यों की परिधि में शामिल कर देना चाहिए।
पुस्तक : आइये इंसान बनें लेखक : डॉ. नन्दितेश निलय प्रकाशक : कौटिल्य बुक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 147 मूल्य : रु. 249.