पांडेय बेचन शर्मा उग्र
साधु गंगादास और असाधु गूदड़ ग्वाले में कोई चाहे, तो कह सकता है कि खासा दोस्ताना था। साधु लक्ष्मीपुर कस्बे के बाहर रहता था एक छोटी-सी आमों की बगिया में, और असाधु गूदड़ ग्वाला रहता था कस्बे के अंदर मक्खनपुर मुहल्ले में। गंगादास और गूदड़ यद्यपि हमारी कहानी के समय क्रमश: 40 और 35 वर्ष के थे, मगर थे वे एक-दूसरे के बचपने के लंगोटिया यार।
दोनों की दोस्ती यों संभव हो सकी कि गंगादास के गुरु गोविंद दासजी छोटे, मगर मठकारी साधु थे। अपने तप और प्रभाव ही से उन्होंने उस आधे बीघे की रसाल-बगिया को लक्ष्मीपुर के एक जमींदार द्वारा प्राप्त किया था। दूसरे जमींदार ने गोविंद दासजी के आदेशानुसार उसमें राम-मंदिर बनवा दिया। सारे कस्बे के चंदे से बगिया में एक कुआं भी तैयार कराया गया। जब तक गोविंद दासजी हृष्ट-पुष्ट थे, उसी बगिया में परम संतुष्ट रहते थे। जब उन्होंने स्वयं पर दुर्बलताओं का दबाव पड़ते पाया, तब किसी ऐसे व्यक्ति के लिए चिंतित हो उठे, जो उनके बाद भाव और भक्ति से भगवान की पूजा और सेवा करता रहे। लक्ष्मीपुर के भक्तों ने सलाह दी कि वे किसी कुलीन को अपना शिष्य बना लें। यही उन्होंने मन-ही-मन निश्चय भी किया, लेकिन बीच में गंगादास टपक पड़े, जिन्हें विधवा माता जन्म लेते ही लेकर नदी में बहाने जा रही थी। गंगादास को उसकी माता से मांग लाकर गोविंद दास ने गंगादास बनाया, पाला-पोसा, बड़ा किया, लिखाया और पढ़ाया भी। गुरु गोविंद दास ने अपने उसके चरित्र पर भी भरपूर ध्यान रखा था- संयम, नियम, व्रत, उपवास और कठोर ब्रह्मचर्य में बांधकर गुरु ने आखिरकार चेले को साधु बना ही डाला। गोविंद दासजी जब बैकुंठवासी हुए, उस वक्त उनके शिष्य गंगादास जी पच्चीस वर्ष के पूरे पचहत्थे जवान थे। कस्बे के सैकड़ों पंडित-विद्वानों से जान-पहचान होने पर भी गंगादास का सबसे बड़ा मित्र था-ग्वाला गूदड़। क्योंकि गूदड़ का बाप मंदिर की गाय दुहने जब आता, तब उसको अक्सर संग लाता था। गोशाला साफ करने, गायों को नहलाने, पानी भरने में गूदड़ के बाप को कई घंटे लगते, और अक्सर कई घंटे गूदड़ और गंगादास साथ-ही-साथ बिताते।
यों ही दिन बीते, हफ्ते, महीने और बरसों बीते। गंगादास बच्चे से बड़े हुए, और फिर हुए साधु से महंत, मगर गूदड़ ग्वाला और साधु गंगादास का प्रेम दिन दूना और रात चौगुना ही बढ़ता रहा, यद्यपि पिछले कांटे गूदड़ लक्ष्मीपुर में बुरी तरह बदनाम हो गया था। लोगों का ख्याल था कि वही चोरों का सरगना है, चोरी करता है और इस तरह हासिल चीजों को इस सूबे से उस सूबे में बेचवाया करता है। गंगादास को पुराने पंडितों ने हितोपदेश भी दिए, फिर भी दोनों की मैत्री ठंडी न पड़ी। लोग आखिर कहने लगे, ‘लुटेरे का मित्र यह साधु क्यों है, और हठपूर्वक रहना चाहता है? क्या गूदड़ की कमाई में गंगादास का भी भाग होता है? ऐसा तो नहीं। बातचीत से, रंग-ढंग से, ऐसा तो नहीं मालूम पड़ता। मगर गूदड़ की असाधुता के प्रमाण भी कम नहीं। नवगढ़ी के डाके में कितनों ने गूदड़ को साफ पहचाना, मगर पकड़ उसे कभी कोई न पाया। पब्लिक तो पब्लिक-पुलिस तक!’
‘बदमाश गूदड़ के मारे तो नाकों दम हो रहा है। हजार कोशिशें करने पर भी उसके खिलाफ एक भी सबूत या गवाह हम नहीं पाते।’ लक्ष्मीपुर-कस्बा-पुलिस-स्टेशन के इंचार्ज ने छोटे दारोगा से कहा। छोटे दारोगा बाबू बंगाली थे और पुलिस में चंद बरसों से ही होने पर भी बड़े जोशीले और बुद्धिमान ऑफिसर माने जाते थे। ‘गवाह नहीं मिलते, इसका सबब कुछ-कुछ मैं जानता हूं, शायद…।’ ‘क्या… आप जानते हैं?’ बड़े दारोगा ने दरियाफ्त किया। ‘मैं समझता हूं, महंत गंगादास का दोस्त होने की वजह से कस्बे के लोग गूदड़ के खिलाफ गवाही देने नहीं आते, क्योंकि महंत गंगादास चाल-चलन के बहुत ही अच्छे साधु हैं।’ ‘आप तो गंगादास की बगिया में अक्सर जाते हैं? आप ही ने कहा था न कि वहां के कुएं का पानी स्वास्थ्य देने वाला और रासायनिक द्रव्यों से दिव्य है। आप पूछते क्यों नहीं गंगादास से कि उसकी किस खूबी पर खुश हो उन्होंने उसे अपना सहचर बनाया है? यह बाबा भी…।’ ‘नहीं जनाब,’ छोटे दारोगा ने प्रार्थना भरे स्वर में कहा, ‘गंगादास पर शक लाना दूध को ताड़ी समझ लेना होगा।’ ‘फिर गंगादास ऐसे शातिर बदमाश का साथी क्यों है? आप नहीं जानते बाबूजी,’ बड़े दारोगा ने अनुभवजन्य रोष दिखाया, ‘आप अभी चार ही साल से पुलिस में हैं। ये बाबे-मैं कहता हूं-ये बाबे सौ में सवा सौ पाजी होते हैं। बने, ढोंगी, ठग-जे ताकहिं पर-धन, पर-दारा…।’
‘मेरी कुछ और ही राय है।’ छोटे बाबू ने अपने अफसर की तरफ गंभीरता से देखकर कहा, ‘मैं समझता हूं, गंगादास को गूदड़ का जीवन पसंद आता है, मोहक मालूम पड़ता है। क्यों? मैं समझता हूं, बचपन से ही कठोर व्रत, संयम, नियमों का पालन करते-करते उक्त सभी अच्छे गुणों से गंगादास का मन खट्टा-सा हो गया।
‘हा-हा-हा-हा!’ हंसे बड़े दारोगा साहब, ‘छोटे बाबू की बातें होती हैं दूर की-पते की। जिन्हें कहते हैं अंगरेजी-जबान में ‘साइकालॉजिकल’ बातें। खैर, इस गूदड़ को अब आप ही संभालिए।’
‘गूदड़ भाई!’ गंगादास ने मंदिर के बरामदे में बैठे-बैठे पूछा, ‘पुलिस बुरी तरह तुम्हारे पीछे है, यह तुम जानते हो?’ ‘जानता हूं, महाराज!’ मित्र होने पर भी नम्रता से गूदड़ ने कहा, ‘लेकिन आपकी कृपा से कच्ची गोलियां गूदड़ ने नहीं खेली हैं। लूटपाट के हर एक मौके पर मैं नहीं रहता, मेरे साथी लोग रहते हैं। मैं स्वयं किसी औरत के पास या डाका डालने जब जाता हूं, तब एक खास तरह के यंत्र से लैस होकर जाता हूं।’ ‘यंत्र?’ आश्चर्य से मुंह फैलाकर गंगादास ने पूछा, ‘क्या स्त्री-गमन और डाके लिए भी यंत्र-मंत्र होते हैं? क्या है तुम्हारे पास?’ ‘मेरे पास…’ गूदड़ ने धीरे से जवाब दिया, ‘दो टके बराबर तांबे के सिक्के हैं, उन पर कुछ मंत्र-सा खुदा है। स्त्री-संग के लिए खास यंत्र को कमर में बांधा जाता है, डाकों में रक्षा के लिए मुंह में रखा जाता है। सब विश्वास की बातें हैं, इसे मुंह में रखकर पचासों बार मैं यारों के साथ ‘काम’ पर गया और बेदाग, हर बार, बचकर आया। यहां तक कि पुलिस हैरान है।’ ‘मैंने भी पुलिसवालों से तुम्हारी तारीफ सुनी है!’ ‘ठीक है महाराज।’ जरा उदासी से गूदड़ बोला, ‘सब ठीक है, मगर न जाने क्या नहीं ठीक है, जिसे दिल से महसूस करने पर भी बतलाया नहीं जा सकता… मैं, इस जीवन से ऊब उठा हूं।’ ‘क्या?’ हैरान गंगादास ने पूछा, ‘तुम्हारा जीवन-क्रम मुझे तो बहुत ही आकर्षक मालूम पड़ता है। सुना है, कई सुंदरियां तुम्हारे वश में हैं।’ ‘हैं। बरसात का पानी नाबदान में जाता है कि नहीं, वैसे ही हमसे निरंकुश लुटेरों का सर्वस्व महामायाओं के पास ही जाता है। हैं स्त्रियां-कई सुंदरियां, लेकिन मैं छक चुका उनके रूप-रस से। सबके दिल में अगर चाह है, तो महज उन रुपयों की, जिन्हें मैं अपनी जान जोखिम में डालकर भर-भर अंजुली लाता हूं। रुपए न होंगे, उस दिन वे सुंदरियां मेरी न रहेंगी। मैं इस नकली जीवन से ऊब गया हूं। मुझे तो ऐसा लगता है कि सनक में किसी दिन सर मुंडाकर किसी ओर चला न जाऊं।’
‘ओह!’ घबराकर साधु ने गूदड़ का मुंह बंद कर दिया, ‘बुरी बातें मुंह से न निकालो। साधु होना है, तो यह मंदिर है, बगिया है। यहीं रहो और सेवा करो। कहीं भागने-जाने की क्या जरूरत? मुझे तो तुम्हारा जीवन निहायत मीठा मालूम पड़ता है। मेरा तो अगर बस चले…’ गंगादास न जाने क्या कहते-कहते, न कह सके। ‘बस’ गूदड़ ने दृढ़ता से कहा, ‘परसों आखिरी बार एक ‘काम’ और करना है। इसलिए उस काम की तैयारी महीनों से हो रही है। लक्ष्मीपुर की विख्यात विधवा रुक्मिणीबाई के पास पांच लाख रुपए नकद हैं। बड़ी रकम हाथ लगने की उम्मीद है। बस, सोचा है, इस काम को कर, दाम से एक दिन और मैं अंतिम बार सुख लूटूंगा। फिर ठाकुरजी की सेवा उसी प्रेम से करूंगा, जिस प्रेम से आज तक चुन-चुनकर कुकर्म करता रहा।’
‘छि: गूदड़ भाई!’ गंगादास ने कहा, ‘कुकर्म-सुकर्म कुछ नहीं। देखते नहीं मुझे। बचपन ही से तो सुकर्म कर रहा हूं। न जाने फिर भी शांति, संतोष क्यों हासिल नहीं। तुम अपनी समझ से ‘कुकर्म’ करते हो। लूटपाट करने, कमर में यंत्र बांधकर सुंदरियों से मिलने और पुरुषार्थ से सुख की सारी सामग्री पाने पर भी तुम्हें शांति नहीं, संतोष नहीं। शांति-संतोष न तो इस ओर है और न उस ओर, फिर दोनों तरफ की सैर क्यों न की जाए?’
‘महाराज!’ ताज्जुब से गूदड़ बोला, ‘आप ऐसे कैसे वचन बोल रहे हैं? आखिर कुकर्म, कुकर्म ही है और सुकर्म, सुकर्म। आपमें और मुझमें आसमान और जमीन का फर्क है।’ ‘कुछ भी अंतर नहीं। मैं कोई अपनी इच्छा से तो साधु हुआ नहीं, मेरा दिल चालीस साल तक आने वाले जन्म या मुक्ति के लिए खटते-खटते निस्सार और नीरस हो गया है। गंगादास की पूर्णता के लिए अभी जरूरत है…’ ‘किसकी जरूरत?’ ‘कुकर्मों की गूदड़ भाई! जरा पास आओ। काने में एक बात कहूं।’ कान की बात सुनकर गूदड़ सकते में आ रहा।
‘महाराज! आप क्या कहते हैं? ऐसा नहीं हो सकता। आप ऐसा कुछ कर ही नहीं सकते। जिस तरह अच्छे काम अभ्यास से होते हैं, वैसे ही बुरे कामों की भी कहानी है। इनके लिए जितने अभ्यास की जरूरत है, आपमें उसका दसवां हिस्सा भी नहीं। भले-बुरे, सबके लिए अभ्यास की जरूरत है। खैर, अब आज्ञा हो। विधवा के घर वाला काम करने का इंतजाम करना है। कौन आ रहा है? हां, पहचाना आपने?’ ‘छोटे दारोगा-बंगाली बाबू-मेरे मित्र हैं…।’ ‘मैं जाऊं?’ ‘यह शक करें, तो-कि मेरे आते ही भागा गूदड़?’ ‘करें शक बेशक! यह हमारा कुछ भी नहीं कर सकते। आइए, सलाम छोटे बाबू!’ ‘ओह गूदड़!’ तेज नजर उस पर डालकर बंगाली दारोगा ने पूछा, ‘खैरियत तो है?’ ‘आपकी दया है।’ गूदड़ ने ‘खग ही की भाषा’ में जवाब दिया। गूदड़ चला, फिर भी बंगाली छोटे दारोगा ने बाधा देते हुए एक प्रश्न और किया, ‘क्या काम है गूदड़ भाई? कस्बे में काम है या बाहर? तुम खुद जा रहे हो?’ ‘हां, घर पर कुछ काम है। काठियावाड़ की भैंसें बिकने आई हैं, उन्हीं के सौदागरों से झक-झक करना है। माफ करिएगा।’ गूदड़ चला गया। निर्भय, निर्बाध। कुछ और पूछने की इच्छा होने पर भी छोटे दारोगा पूछ न सके। परिणाम यह हुआ कि साधु गंगादास से आज उन्होंने सवाल किया, ‘इस डाकू से आपकी इतनी दोस्ती क्यों?’ ‘डाकू? किसने कहा?’ गंगादास ने पूछा, ‘गूदड़ डाकू नहीं, साधारण पेशेवर इनसान है। उसे आपने क्या कुसूर करते पाया?’ ‘यही तो हैरानी है!’ सब-इंस्पेक्टर ने कहा, ‘मौके पर गूदड़ कभी पकड़ा न गया। वैसे उसके खिलाफ शिकायतें थाने की दराजों में इकट्ठी हैं। हमारा ख्याल है, आपकी वजह से गूदड़ मजबूत है। इसी गूदड़ के बारे में खास तौर पर आज मैं आया हूं। इसे जल्द ही कानून के शिकंजे में कसेंगे, लेकिन यह काम आपकी मदद बगैर मुमकिन नहीं।’ ‘आप मुझसे क्या चाहते हैं? वह तो मेरा मित्र है।’ ‘वह चोर है! गूदड़!’ ‘किसी-न-किसी अर्थ में हम सभी चोर हैं।’ गंगादास ने दबंग आवाज में जवाब दिया। ‘ठीक है। हम लोग हैं पीछे गूदड़ सिंह के। जरूर पकड़ेंगे रंगे हाथों वह दिन बहुत दूर नहीं।’ ‘गूदड़ मेरा मित्र है। जब कभी उसके रंगे हाथ आपके चंगुल में आवेंगे, आप देखेंगे, वे हाथ गंगादास के होंगे, गूदड़ के नहीं। वह तो साधु है, साधु।’
रात अंधेरी और घनघोर-बरसाती। वक्त कोई बारह बजे का। पानी बरसते-बरसते रुक गया था, चारों ओर सन्नाटा। इसी वक्त लक्ष्मीपुर-कस्बे का कोई व्यक्ति गोपालदास की बगिया की ओर जाता नजर आया। आदमी सिर से पैर तक काले लबादे से ढका था। बगिया के फाटक पर दो काली मूर्तियां-सी नजर आईं। वे दोनों आदमी पहले के साथ नहीं आए थे। वे धीरे-धीरे बातें करने लगे, ‘गूदड़ ही तो है। जा रहा है गंगादास को प्रणाम कर आशीर्वाद लेने।’ ‘गंगादास तो गंगादास, आज विष्णुदास भी गूदड़ को हमसे बचा न सकेंगे। जाओ। सारी तैयारी सही-सही जगहों पर फौरन करो।’
एक आदमी कस्बे की तरफ लौटा। दूसरा बगिया के फाटक पर खड़ा-खड़ा अंदर की बातें सुनने की चेष्टा करने लगा। मगर गूदड़ और गंगादास फाटक से काफी दूरी पर बातें कर रहे थे। एक बार आवाज आई गूदड़ की, ‘बस, यह मेरा आखिरी काम ठीक, फिर मैं बैरागी बन जाऊंगा।’ इसके बाद कोई आध घंटे तक वे दोनों आपस में उलझते रहे, लेकिन बोलते थे धीरे।
कस्बा-लक्ष्मीपुर के पूर्व में गोपालास की बगिया थी। वह आदमी दक्षिण की ओर चला। पीछा करने वाले ने भी उसे आंखों से ओझल न होने दिया। एक पुराने, सूखे नाले के पास आकर डंडाधारी ने ताली बजाई। पचासों आदमी चारों तरफ से निकल आए। पहले आदमी ने आज्ञा दी, ‘फौरन अपने-अपने काम पर पंद्रह-पंद्रह की तीन टुकड़ियों में बंटकर विधवा के घर पर झपटो। वर्षों का खर्चा एक ही घर में भरा धरा है-बहादुरो! बढ़ो, लूटो!’ और, बिना एक शब्द के आज्ञा का पालन हुआ। तीन टुकड़ियों में बंटकर सब-के-सब कस्बे में घुस गए।
थोड़ी ही देर बाद रुक्मिणी बाई के मकान पर भयानक डाका पड़ा। डाकुओं के पास मशालें, टार्च, तलवारें और बंदूकें भी थीं। देखते-ही-देखते रुक्मिणी बाई के सारे नौकरों को बांध, औरत-बच्चों को एक कोठरी में बंदकर रुक्मिणी बाई को डरा-धमका, चाबियों का गुच्छा छीन, तिजोरियां खोल और तोड़-तोड़कर बरसों का संचित माल डाकू लूटने लगे। विधवा का सर्वस्व लूटकर भाग खड़े हुए। मगर अधिक दूर न गए होंगे कि सामने से पुलिस की तेज टार्चों का प्रकाश उनकी भयानक शक्लों पर पड़ा। वे घबराकर पीछे की तरफ, भागने के इरादे से, मुड़े। मगर इधर भी पुलिस! देखते-ही-देखते पूरा गिरोह घेर लिया गया। पुलिस के जवान कोई डेढ़ सौ थे। काले लबादे वाले डंडाधारी को पुलिस के कई ऑफिसरों ने जा घेरा- ‘कहां भागता है बदमाश गूदड़, ठहर! एक कदम भी आगे बढ़ा कि गोली मार दूंगा। पहचानता नहीं, मैं बंगाली सब-इंस्पेक्टर हूं। तुझ जैसे डाकुओं का काल।’ ‘ओह आप हैं! बंगाली बाबू?’ लबादे वाले नकाबपोश ने कहा, ‘गूदड़ के हाथ में जब तक यह यंत्र है, उसे कोई पकड़ न सकेगा। देखिए।’ उधर बंगाली सब-इंस्पेक्टर के हाथ में यंत्रित सिक्का गया, इधर पुलिस के हाथों नकाबपोश गिरफ्तार! ‘फाड़ डालो इसका लबादा।’ एक ऑफिसर ने आज्ञा दी- ‘कई बरस से यह गूदड़ साला हाथ आ नहीं रहा था। इसे जूते लगाते कोतवाली ले चलो।’
हुक्म की देर-पुलिस के एक जवान ने इधर से लबादे को लिया, दूसरे ने उधर से। तीसरा नकाब पर झपटा। तब सबसे पहले बंगाली सब-इंस्पेक्टर ने और फिर सबने देखा कि नकाब के अंदर की सूरत गूदड़ ग्वाले की नहीं, किसी और ही की है! ‘आप…?’ परमाश्चर्य से बंगाली सब-इंस्पेक्टर ने पूछा। ‘हां, बंगाली बाबू, मैं ही हूं-गंगादास। गूदड़ ग्वाला तो कभी का साधु हो गया है।’ ‘साधु!’ हैरत से बंगाली दारोगा बोला, ‘विश्वास नहीं होता गंगादासजी!’ ‘बंगाली बाबू, मुझसे उसी भाषा में बातें करने की कृपा कीजिए, जिसमें गूदड़ ग्वाले से करते। मुझे साधु अब न समझिए। अब तो मैं साधुत्व की मिठाई से ऊबकर दुनिया की खटाई का मजा लेने पर आमादा हूं। देवता बदल गया बाबूजी! पूजा का प्रकार भी, साथ ही, बदलना चाहिए।’