सत्यवीर नाहड़िया
आलोच्य कृति ‘राजबीर की कुंडलियां’ एक ऐसी ही हरियाणवी कृति है, जिसमें प्राचीन सनातनी छंद कुंडलिया के नाम पर कुछ और ही लिखा गया है। प्रख्यात हास्य कवि काका हाथरसी अपनी कुंडलियानुमा रचनाओं को फुलझडि़यां कहते व लिखते थे, क्योंकि वे कुंडलियां नहीं होती थीं। बेहतर होता कि इन रचनाओं को भी कुंडलियों की बजाय काका की तरह कोई अन्य नाम दिया होता जैसे हरियाणवी छक्के आदि क्योंकि ये रचनाएं कुंडलिया छंद में नहीं हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित इस पुस्तक में शामिल कुंडलियां विधा के सभी तीन सौ बीस छंद कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, जिससे कृति में शास्त्रीय पक्ष की त्रुटियों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
घरौंडा निवासी रचनाकार राजबीर वर्मा ठेठ हरियाणवी में अच्छा लिखते रहे हैं, यह मैंने उनकी हरियाणवी रागनियों की दो-तीन कृतियों की समीक्षा इसी पत्र हेतु करते वक्त पाया है। इस बार कुंडलिया विधा में वे पूरी तरह चूक गए हैं। दोहा तथा रोला के मेल से बनने वाले कुंडलिया छंद की इन रचनाओं के किसी भी छंद का दोहा तथा रोला पक्ष निर्दोष नहीं है। रचनाकार का यह कहना भी तार्किक नहीं है कि हरियाणवी बोली होने के कारण मात्राएं घट-बढ़ गयी हैं, क्योंकि विश्व की सभी भाषाएं बोलियों से ही बनी हैं, वस्तुत: कुंडलिया या किसी भी छंद का शिल्प हर भाषा-बोली में समान ही रहेगा। कृति के विद्वान भूमिकाकार ने भी रचनाकार का इस ओर ध्यान नहीं दिलवाया।
संग्रह की सभी रचनाओं का भाव पक्ष बेहद उज्ज्वल है, जिनमें सामाजिक चेतना के प्रेरक पहलू प्रभाव छोड़ते हैं।
पुस्तक : राजबीर की कुंडलियां रचनाकार : राजबीर वर्मा प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 116 मूल्य : रु. 250.