श्याम सखा श्याम
बात प्रथम जनवरी, 2250 की है। हमारी कहानी का ‘मैं’ नामक पात्र लॉन में बैठा बगिया के फूलों की छटा निहार रहा था। पड़ोस के घर से आवाज सुनाई पड़ी।
‘लो अम्मा चाह पी लेओ।’
‘ना बिटिया आज मेरो व्रत हैगा।’
‘ए अम्मा नू कहवें व्रत-उपवास, मां चाह तो पी सके।’
‘ठीक कहवे है बेटी पर इस व्रत मे ना पीवें पानी भी।’
‘ऐ! अम्मा जे तो बड़ा कठिन व्रत है, जे किस देवी-देवता को व्रत है। ऐ! अम्मा तो ना सुणों जा देवी को नाम।’
‘बेटी कुदरत मईया धरती की पहली देवी हती। सारे देवी-देवातन तै पहल्म अवतार लियो था वा नै।’
‘तो अम्मा जा देवी की कथा का हैगी।’
बेटी बड़े-बूढन कहत रहण कि हजारों हजार बरस पहलम जा अपणी धरती एक आग को गोला हती। जा महं लपालप मीलों मील ऊंची लपट उठती रहवें थी।
एक दिन पिता परमेसर कि सबों से बड़ी बिटिया जा को नाम कुदरत हतो, बिरमाण्ड की सैर को निकली। व नै जे आग को गोलो देख लियो। पास गई तो गर्मी से बेहाल। वो दौड़ी-दौड़ी गई अपने पिता कैने और कहयो हम इस गोले से खेलूंगी। पिता ने वाको बहुत समझाओ कि वा बहुत गरम है, खेलने के योग्य ना है पर कुदरत मईया अड़ गई अपनी जिद पर। अब तुम जाणों कि बाल हट था, पिता को मानणा पड़ो। पिता परमेसर ने अपने छुटके बेटे बादल को बुलायो और हुक्म देओ कि वीस गोले की आग बुझा देओ।
पिता की आज्ञा मां बादल गयो और धुआं धार बरस गयो। इतना बरस्यो कि आग तो बुझी ही बुझी, बर्फ जाम गई धरती पर। पिता ने देखो तो बड्के बेटे सूरज को बुला के कहयो कि जाओ थोड़ी बरफा पिघला देओ। सूरज ने दूर खड़े खड़े अपने ताप सूं बर्फ पिघला दई। बर्फ पानी बन बहने लगी तो झरने व नदियां बन गईं। नदी से पानी बह जाकर धरती पर बने अनेक गड्ढों में जा ठहरा तो धरती पर नेक-नेक झील और समंदर बन गए। कुदरत मईया खुश हो कर धरती पर खेलण आण लगी। वा नै खेल खेल में स्वर्ग सों ला के पेड़-पौधे लगा दिये, घास का गलीचा बिछा दिया। धरती हरीभरी हो गई। पिता परमेसर ने बेटी का मन लगाने के लिए धरती पर पानी में भी नेकानेक जीव मछली मगरमच्छ भेज दिये। जंगलों में नेका नेक पशु गाय, खरगोश, भेद, बकरी, हिरण, चीते, शेर, डाइनोसॉर भेज दिये। कुदरत मईया सारी धरती पर मचलती छलांग लगाती घूमती रहती। नदी में डोंगी दाल समंदर तक जा पहुंचती नजारे देखती।
एक दिन गई पिता परमेसर कन्ने बोली, ‘पिताजी जे बड़े जीव मगर मच्छ, व्हेल, शेर, चीते छोटी मछलियों, छोटे जानवरों को खा जाते हैं, पेड़ बूढ़े होकर मर जाते हैं। इनको समझाओ।’
पिता हंस कर बोले बेटी, ‘जे सारे जानवर मेरे आदेश से ऐसा करें हैं।’
‘पर आपने ऐसा आदेश क्यों दिया?’ कुदरत ने पूछा
पिता बोले, ‘अगर मछलियों को मगरमच्छ नहीं खाएंगे तो मछलियों की संख्या इतनी हो जाएगी कि वे सारा पानी पी जाएंगी, इसी तरह अगर जानवर ज्यादा हो गए तो वे सारे पेड़-पौधों को खा जाएंगे। पेड़ सूखेंगे नहीं तो सारे जंगल में जानवरों के रहने लायक जगह ही नहीं बचेगी।’
पिता ने आगे कहा, ‘बेटी तुमने गौर किया होगा कि मैंने सबसे ज्यादा वे वस्तुएं वहां बनाई हैं जो केवल हवा-पानी और धूप पर जीवित रहती हैं। यानी घास बेल-बूटे, पेड़ आदि उनसे कम वे जीव जो घास पौधे आदि खाकर जीवित रहते हैं वे बनाए, फिर वे जीव जो इन छोटे जीवों को खाते हैं। क्योंकि अगर शेर या मगरमच्छ ज्यादा हो जावे न तो वे सबको खा लेंगे। यह मेरा नियम है लेकिन क्योंकि धरती अब तुम्हारा घर है। अत: अब से इस नियम का नाम होगा कुदरत का नियम और इसे सबको पालन करना होगा।’
कुदरत खुश होकर वापस धरती पर आ गई। कुछ दिन बीते वो फिर जा पहुंची पिता के पास एक नई समस्या लेकर बोली, ‘पिताजी वहां सब कुछ मेरी पसंद का है लेकिन मुझ से बात करने वाला कोई नहीं है। इसलिए मेरा दिल नहीं लगता।’
अब पिता तो अपने बच्चों की हर इच्छा पूरी करते ही हैं। सो परमेसर ने एक मानव व एक मानवी बना कर धरती पर भेज दिया।
कुदरत मईया बड़ी खुश उसे सहेली मिल गई बात करने को। जे दोनों स्त्रियां तो बैठ जाती बतकही करने पुरुष बेचारा अकेला पड़ गया। सो वो जंगलों में जाने लगा वहीं से मानवी के खाने के लिए फल तोड़ कर ले आता लेकिन फल तोड़ने लाने में तो थोड़ा समय लगता। वह खाली बैठा उकताने लगा। अरे वही जिसे तुम लोग क्या कहवों, हां बोर होने लगा।
अब बिटिया तुम जाणों खाली दिमाग शैतान को घर होवे है। सो पुरुष ने शिकार करणो शुरू कर दियो। रात जंगली जानवरों से बचने के लिए गुफा ढूंढ़ी, फिर उन्हें डराने के लिए आग जलाना सीख लिया। इसी बीच उनके यहां नन्हे-मुन्ने बच्चे पैदा हो गए। अब उनके लिए खाने की जरूरत होने लगी तो शुरू मे उसने फल इकट्ठे किए। फल लेने दूर जाना पड़ता था तो उसने बाग लगाने शुरू किए। अब एक फल हर मौसम में नहीं होता तो उसने अपने बाग में अलग-अलग मौसम में होने वाले के फल के पेड़ लगाये। इस तरह वह बागबानी व खेती करना सीख गया। उसका कुनबा बढ़ता गया बच्चों के बच्चे होने लगे। तो कुछ बच्चे कुनबे से अलग हो धरती पर अलग-अलग जगह जा बसे।
अब जैसे-जैसे मानवों की संख्या बढ़ी तो पहले उसने जंगल काटने शुरू किए बस्ती बसाने के लिए, फिर जंगल कटते गए, गांव नगर बनते गए। पेड़ कटने से धरती गरम होने लगी, धरती गरम होने लगी तो बर्फ पिघलने लगी, बर्फ ज्यादा पिघली तो पानी कम हुआ नदिया झील सूखने लगी। उधर पेड़ काटने से जंगल के शाकाहारी जानवरों को खाने की कमी पड़ने लगी, छुपने की जगह गायब हुई। उधर शेर आदि ने भी उन्हें खाना आरंभ कर दिया। इधर मनुष्यों की जनसंख्या बढ़ने से उनकी जरूरतें बढ़ी। यानी मांग बढ़ी। इस तरह कुदरत के घर यानी धरती पर कोहराम मच गया।
वह रोटी पीटती गई पिता परमेसर के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई।
पिता ने उसे वरदान दिया कि तेरे तीन पुत्र उत्पन्न होंगे जो दिखने में बहुत छोटे होंगे। जिन्हें मनुष्य देख नहीं पाएंगे। वे तीनों इस मनुष्य की अक्ल ठिकाने लाएंगे। उसकी जनसंख्या को भी अनुपात में रखेंगे।
वक्त के साथ-साथ कुदरत मईया ने तीन पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम हुए कीटाणु, जीवाणु और विषाणु। सबसे पहले बड़ा बेटा गया मनुष्यों को समझाने। उसने उनके शरीर में पहुंच कर संकेत दिये मलेरिया, फाइलेरिया आदि के माध्यम से लेकिन मानव तो अब तक नाम का मानव था। बन तो वह दैत्य गया था। उसने कीटाणु को अपनी मशीनों के जरिये ढूंढ़ कर उसे मारने के हथियार (दवा) बना ली। कीटाणु क्योंकि पानी के माध्यम से घुसता था शरीर में, सो उसने कीटाणु को पानी में मारने का इंतजाम कर लिया।
अब गया दूसरा बेटा जीवाणु। उसने एक बार तो कहर ढा दिया। प्लेग, हैजा, क्षय रोग आदि की महामारी से मनुष्य त्रस्त तो हुआ, डरा भी लेकिन सुधरा नहीं। उसने इससे निपटने के तरीके भी ढूंढ लिए।
कुदरत बड़ी परेशान मायूस बैठी थी। उसकी तीसरी संतान ने बार-बार जाकर मनुष्यों को चेताया, चेचक, फ्लू यहां तक कि स्पेनिश फ्लू नामक विषाणु ने तो मनुष्य को लगभग तबाह कर दिया था। लेकिन मनुष्य अपने ज्ञान के घमंड में चूर था। उसने अब अपने भाई -बहनो पर भी अत्याचार करने शुरू कर दिये। जिसके कारण विश्व युद्ध तक हुए। जिसमें मानवों ने मानवों को मार डाला।
यही नहीं, उसने अपने कुल के जीव महिलाओं पर भी जुल्म ढाने शुरू कर दिये। अपने गरीब भाइयों को भी नहीं छोड़ा।
धरती पर बढ़ती आबादी को देख कर उसे दूसरे ग्रहों पर कब्जा करने का ख्याल आया और उसने अन्तरिक्ष में पहुंचने व बसने की ठान ली
इधर कीटाणु और जीवाणु तो जुए में हारे हुए पांडव पुत्रों की तरह सिर झुकाए बैठे थे। अकेला विषाणु मनुष्यों से अभिमन्यु की तरह लड़ रहा था। कभी इबोला, कभी बर्ड फ्लूू, कभी एड्स जैसे अस्त्र शस्त्र फेंक रहा था। कभी लगता जीत रहा है लेकिन फिर मनुष्य उसे भगा देता।
थक कर नन्हा विषाणु जंगल जाकर तप करने लगा। तप करते-करते काफी समय बीत गया तो आकाशवाणी हुई। उसने कहा-तुम वियतनाम देश के आसपास के जंगलों में जाओ। वहां एक उल्टा लटका तपस्वी मिलेगा, वही तुम्हारी समस्या का निदान करेगा।
कहा भी गया है कि कुआं प्यासे के पास नहीं आता, प्यासे को कुएं के पास जाना पड़ता है। मरता क्या न करता, विषाणु पहुंच गया वहां जहां उल्टे लटके महात्मा चमगादड़ ऋषि तपस्या रत थे। उसने बताया कि जैसे मोहग्रस्त गरुड़ काकभुशुंडी ऋषि के पास गए थे वैसे ही मैं आपकी शरण में आया हूं। ऋषि चमगादड़ ने उससे कहा कि शास्त्र कहते हैं कि शरणागत की रक्षा सबसे बड़ा धरम है। इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। जैसे कबूतर-कबूतरी भूखे बहलिए की प्राण रक्षा हेतु स्वयं आग में कूद पड़े थे या दधीचि ऋषि ने देवताओं को वज्र बनाने हेतु अपनी हड्डियों का दान कर दिया था तो मैं क्यों पीछे हटूंगा।
सुनो इसके लिए तुम्हें मेरे शरीर में प्रवेश कर मेरा खून पीना होगा। ऐसा करने से तुम्हारे अंदर कई विशेष शक्तियां उत्पन्न हो जाएंगी। यथा तुम मनुष्य के शरीर में घुस कर उसके हर अंग में पहुंचने की शक्ति पा जाओगे तथा वहां मनुष्य के शरीर में पहुंचकर तुम रक्तबीज की तरह जल्द हजार-लाख गुणा बन सकोगे। साथ-साथ मनुष्य द्वारा अब तक बनाई गई कोई दवा तुम असर नहीं करेगी। यही नहीं, अगर मनुष्य कोई नई दवा बना भी लेगा तो तुम बहुरूपिये की तरह वेश बदल सकोगे, जिससे मनुष्य द्वारा बनाई गई दवा तुम्हें पहचान ही नहीं पाएगी और तुम जब तक चाहोगे मनुष्य को तबाह करते रह सकोगे।
अब इस विषाणु ने पूछ लिया ‘महात्मा मैं आपके शरीर से निकलकर मनुष्य के शरीर में प्रवेश कैसे करूंगा।’
उल्टा लटका तपस्वी विक्रम बेताल की कथा के बेताल जैसी हंसी हंसा और बोला, ‘वत्स यह काम तुम नहीं, मैं करूंगा। मैं मनुष्य से खुद को पकड़ा जा कर उसके घर पहुंचुंगा जहां वह मुझे मार डालेगा। बस मुझे मारकर पकाने से पहले कुछ मिनट का अवसर तुम्हें मिलेगा। उतने वक्त में ही तुमको मनुष्य की नासिका के माध्यम से मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर अपना जाल बिछाना है वहीं अपनी संतति जल्द से जल्द बढ़ानी है और तुम्हारी संतान को मनुष्य के शरीर में उधम मचानाे है। इतना उधम मचानो है कि वा की अक्ल ठिकाने आ जावे। मनुष्य को सांस लेनो कठिन बना देना। बुखार-खांसी क्या, उसके हर अंग में उत्पात मचाना की वाको नानी याद आ जावे। उसको अहसास हो जावे कि उसने कुदरत मईया के पेड़-पौधे, जीव जन्तुअन, पहाड़, नदी, झीलन के साथ क्या ज्यासती की है। और फिर उसी मनुष्य की नाक से तुमारी संतति को बाहर निकलकर जो भी मनुष्य मिले, उसकी नाक में प्रवेश करते रहना होगा। अगर मनुष्य न भी मिले तो आसपास किसी सतह से चिपक जाना और जैसे ही कोई अन्य मनुष्य उस सतह को छुए तो तुम झट से उसके शरीर में भी प्रवेश कर जाना। इस तरह इन घुमंतू मनुष्यों के माध्यम से तुम सारे संसार में पहुंच जाओगे। हां, देखो कोशिश करना कि मनुष्य के अलावा किसी अन्य जीव को नुकसान न पहुंचाना और कुदरत मईया, धरती और धरती के सभी जीवों पेड़-पौधों, नदियों को बचाने में सफल हो जाओगे। अब जल्दी से मेरे शरीर में घुस जाओ, वो आदमी आ रहा है मुझे पकड़ने।’
तो बिटिया इस तरह कुदरत के तीसरे बेटे ने धरती के सभी मानवो को बेहाल कर रोने-पीटने को मजबूर कर दिया। लोग रोते-पीटते कुदरत मईया कन्ने पहुंचे। कान पकड़ कर बोले-अम्मा हमें मुआफ़ कर देओ। अबसे हम किसी को बेवजह दुख नहीं देंगे। पेड़ लगाएंगे, जंगल नहीं काटेंगे। अगर काटने पड़े तो केवल जरूरत जितने, वे भी आज्ञा लेकर काटेंगे। नदियान को नहीं बांधेंगे, पहाड़ नहीं काटेंगे। हम आपके अन्य जीवों की तरह आपके बनाए नियमों का पालन करेंगे।
कुदरत मईया ने अपने नन्हे बेटे को मनुष्य को माफी देने को कहा और क्योंकि उसने मनुष्यों को रोने पर मजबूर कर दिया था, इसलिए उसका नामकरण कर दिया कोरोना।
बिटिया तभी से मनुष्य सुधरने लगा और आज तुम जे जो हरीभरी हरियाली धरती, साफ सफ्फ़ाक हवा-पानी लहलहाते वन, कलकल करते झरने व उफनती नदियां ऊंचे-ऊंचे बर्फ के पहाड़ जिन्हे ग्लेशियर कहते हैं, देख रही हो ना, जे सब उसी कोरोना देवता को प्रसाद है। इसीलिए हम जे व्रत रखे हैं, जिससे हमें याद रहे कि हम सबने कुदरत मईया को कहा माननो है। धरती और वा पर बसने वाले हर जीव को, पेड़-पौधन को सन्मान देनो है। वरना कोरोना देवता फिर से आ जावेंगे। तो मेरे संग बोलो-हे कुदरत मईया, हे कोरोना देव, हम मनुष्य पहले जैसी गलती नहीं करेंगे।
जय कोरोना देव, जय कुदरत मईया।