सरस्वती रमेश
कहते हैं इंसान वक्त के हाथों की कठपुतली होता है। वक्त जब व जैसे चाहे उसे नचा सकता है। लेकिन वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता। ‘करवट लेता वक्त’ समय के हाथों नचाए गए किरदारों की कहानी है। वक्त उन्हें कभी हंसाता है तो कभी रुलाता है। डॉ. वनीता चोपड़ा की कहानियां अतिसाधारण घटनाओं में भी कुछ संवेदनशील खोज लेती हैं। अपने आसपास घटित घटनाओं से उन्होंने खूबसूरती से कहानियां रच ली है। ये कहानियां समाज की झूठी निष्ठा पर कुठाराघात करती हैं। असंवेदनशील, खोखले समाज की पड़ताल करती हैं और फिर संवेदना भी तलाश लेती हैं। यह संवेदना ही आज की आशा है, जिसके सहारे हम जी रहे हैं।
शीर्षक कहानी वक्त और समाज की सताई रीना की व्यथा है। रीना थोड़ी मंदबुद्धि है। ऊपर से एसिड ने उसके चेहरे की खूबसूरती भी छीन ली है। समाज से रीना को सिर्फ दुत्कार मिली मगर सौभाग्य से उसका ब्याह एक बड़े घर में हो गया। फिर उसकी किस्मत बदल गई। ‘कुफ्र की रात’ का किरदार शम्भू वहशी मालिक की बातों में फंस कर पत्नी की इज्जत और प्राण दोनों से हाथ धो बैठता है। ‘इक्कीस रुपये’ और ‘दो परांठे’ इंसानों में बची संवेदना की बानगी हैं।
लेखिका के पास घटनाओं को देखने की दृष्टि है। मगर भाषा, शैली, वाक्य विन्यास और संवाद पर मेहनत करने की जरूरत है। प्रूफ की गलतियां खटकती हैं।
पुस्तक : करवट लेता वक्त लेखिका : डॉ. वनीता चोपड़ा प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 116 मूल्य : रु. 280.