
चित्रांकन : संदीप जोशी
शाम को ऑफिस से आने के बाद चाय के कप के साथ पत्र को देख दास बाबु ने खोला... छोटा पर सुन्दर अक्षरों में लिखा पत्र, दास बाबु... हम मित्र नहीं हैं पर आशा करता हूं आज के बाद हम अच्छे मित्र होंगे। आपके खाते में जो रकम जमा हुई है , बिना किसी चर्चा के अपना मकान खरीद लो। माता-पिता को ले आओ।
प्रभा पारीक
पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में पहाड़गंज का वह भीड़-भाड़ भरा पुराना इलाका। पता नहीं क्यों वहां एक ही तरह की रौनक और जिन्दादिली सदा पसरी रहती। जो किसी की भी समझ के परे था। गरीब होते हुए भी यहां कोई उदास नहीं दिखता। चहकते से नजर आते चेहरों के लोग, दास बाबू का जब भी अन्य बड़े शहरों में जाना हुआ उन्होंने महसूस किया कि खूब कमाने और दिल खोलकर खर्च करने, साफ-सुथरे महंगे कपड़े पहनने, करीने से जमे बालों, शानदार सूट-बूट पहने खुशबूदार रहने के बावजूद उनके चेहरे सदा बेनूर ही नजर आते। दास बाबू को इसका कारण लोगों की मानसिकता लगता।
गांव छोड़ वर्षों पहले वह चांदनी चौक के इस संकरे इलाके में आ बसे थे। उन्हें लगता कि मनुष्य जहां वर्षों निवास करता है वहीं का हो जाये ये उसकी मजबूरी नहीं होती पर समझदारी होती है। जितनी सकारात्मकता दिल्ली के इस इलाके में नजर आती उतनी उन्हें अपने स्वयं के गांव में भी कभी नजर नहीं आई। बेतरतीब से कपड़े पहने, जोर-जोर से बोलते, गाने सुनते, हंसते-खिलखिलाते, एक-दूसरे को बात-बात में गालियां देते ये लोग, सुख-दुख के ये साथी, सदा मिल-बांटकर खाने वाले।
दास बाबू का दो कमरों का घर और सामने छोटी-सी छत परिवार को बड़े बंगले में रहने-सा आनन्द देती। पत्नी कपड़े सुखाने, पापड़ सुखाने, बतियाने से लेकर दिन में सोने तक वहीं बनी रहती। उसी छत का एक कोना दास बाबू का जिसमें बैठकर वह अखबार पढ़ते, अपना प्रिय रेडियो सुनते। जहां दास बाबू, एक साधारण नौकरी करने वाले, मेहनत की कमाई घर लाने से पहले कितने पन्नों में हिसाब लिखते। आने वाले खर्चों के साथ न जाने कितने बाकी हिसाब मुंहबाये खड़े नजर आते। दास बाबू को हर हिसाब लिख कर रखने की आदत थी। यूं भी जब ख्वाबों के रास्ते जरूरतों की ओर मुड़ जायें तब जिन्दगी के असल मायने समझ आते हैं।
सीमित तनख्वाह में सभी बच्चों की जरूरतें पूरा करना, सामाजिक व्यवहार निभाना, इन सभी खर्चों का आयोजन करने में न जाने कितने पन्ने भरे होंगे दास बाबू ने... अपनी पुरानी डायरियों को भी दास बाबू इसीलिये संभाले रखते कि न जाने व्यवहार का लिफाफा देते समय कहीं चूक न हो जाये। कुल मिलाकर अपनी जिम्मेदारियां कुशलता से निभा पाए, संयोगवश पत्नी भी संतुष्ट व कदम-कदम पर साथ निभाने लायक ही मिली थी।
एक दिन बैंक में पासबुक पूरी करवाते समय वह अचानक चौंक गये। देखा कि उसके खाते में 35 लाख रुपये कुल दिख रहे हैं। पहले सोचा शायद गलत देख लिया, स्कूटर स्टार्ट कर चल पड़े घर की ओर। पर रास्ते में मन ही नहीं माना तो पेड़ के नीचे स्कूटर खड़ा किया और फिर से पास बुक देखी ...अभी पिछले हफ्ते ही उनके एकाउंट में यह रकम जमा हुई थी। चिन्ता से बढ़ी धड़कनें आम दिनों की धड़कनों से भिन्न थी। उनकी यह धड़कनें कुछ और ही कह-सुन रहीं थी... दिल जैसे उछल कर बाहर आने को आतुर था। जो राशि उन्होंने देखी वह सही थी ...मन बल्लियों उछलने लगा। चेहरे की रंगत ही बदल गई ...पर ईमानदार व्यक्ति का भीरू मन ...क्या करे किसी को पूछ भी नहीं सकते। सोचने लगे- कौन होगा जिसने इतनी रकम उनके खाते में जमा कराई होगी... और क्यों।
घर पहुंचे, मन था फूला-फूला-सा। पत्नी ने उनको देखते ही चाय चढ़ाई। आज रेडियो में भी मस्ती भरे गीत सुन कर मन बाग-बाग हो चला था। दास बाबू को प्रसन्नचित्त देख पत्नी को भी अच्छा लगा। चाय के साथ नाश्ता भी पकड़ाते हुए बोली बस ऐसे ही रहना चाहिए हमेशा... क्यों नहीं... आज मुझे कारण जो मिल गया है। तपाक् से निकले वाक्य का अन्तिम भाग गले तक ही रह गया। अचानक याद आ गया ‘क्या कहने जा रहे हैं’ ...अभी हजारों सीख देकर डरायेगी।’ खाते में इतनी बड़ी रकम होने का मानसिक आनन्द भी नहीं लेने देगी...’ पत्नी का ध्यान शायद रेडियो के गीतों पर था। दास बाबू पत्नी के साथ गीतों का मजा लेने लगे , दोनों की प्रतिक्रियाएं समान थी। जबकि मन:स्थिति भिन्न थी। बीच-बीच में दास बाबू सोचते जा रहे थे ‘किसने जमा करवाई होगी इतनी रकम’? अचानक याद आया छोटे भाई की नई-नई नौकरी लगी है, कहीं उसने तो...। पत्नी से पूछा ‘अब तो प्रताप के पास खूब पैसे आ गये होंगे...’। पत्नी बिंदास... ‘कहां से होंगे अभी तो दो तनख्वाह ही मिली है...’। ‘हां’ बोलकर दास बाबू चुप हो गये ...पर दिमाग वहीं पर दौड़ने लगा।
शाम की सैर जाने का समय हो गया। साथ वालों ने नीचे से आवाज भी लगाई- अरे चलो भई दास , सैर का समय हो गया। दास बाबू उसी तरह बैठे विचार करते रहे। महीने भर तक किसी ने दावा नहीं किया तो वह बैंक से पैसा निकाल कर अपने कुछ जरूरी काम तो कम से कम कर ही लेंगे। एक अच्छा चश्मा बनवाने की कब से मंशा है जिसे मन में दबा रखा है। एक अच्छा पायजामा-कुर्ता जिसे पहनकर कभी ऑफिस भी जा सकें। और तो और, कलाई घड़ी का पट्टा कब से टूटा पड़ा है, बस काम ही चल रहा। धीरे-धीरे उन्हें घर के हर सदस्य की आवश्यकतायें याद आने लगीं। और तो और, मां को यात्रा पर भेजने की भी दबी इच्छा कुलबुलाने लगी थी। बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने का सपना फिर सिर उठाने लगा और न जाने इतना कुछ कि दास बाबू सोचने लगे... क्या उसकी इतनी इच्छाएं अधूरी हैं... जबकि वह तो लगातार काम कर ही रहे हैं, तनख्वाह तो पा ही रहे हैं... दास बाबू ने महसूस किया कि हमारी इच्छाएं सुरसा के मुंह समान हैं। जो समयानुकूल सिकुड़ती-बैठती रहती हैं। उन्होंने अपने विचारो का रुख तुरंत बदल दिया... वो नहीं चाहते, इतना... निराशावादी होना। उन्होंने रेडियो की आवाज और तेज कर दी और अपने हाथ की रेखाएं देखने लगे। इसमें लिखा है क्या कहीं लखपति होना? पत्नी ने रसोई से निकलते हुए पूछा क्या हुआ ...कोई कांटा लगा है क्या, लाओ निकाल देती हूं...। नहीं कुछ नहीं... बोलकर सोचने लगे-कांटा ही तो है जो मन पर लगा हैं धन का कांटा...।
स्वयं को संयत रखते हुए उठे, भगवान के आगे दीपक जलाते हुए भी विचार चलते रहे। शाम का खाना खाकर टीवी देखने बैठे तो अपनी पसंद के धारावाहिक में अपना मन रमाने का प्रयास करते रहे। रात को सोते समय सोच रहे थे-जो पैसा मेरा नहीं है उसके लिये मैं इतना विचलित क्यूं हूं...?
सुबह ऑफिस के लिये तैयार हुए। डिब्बा लेकर नीचे उतर रहे थे कि शर्मा मिल गया- सब ठीक है न, कल आये नहीं सैर को भी... सब ठीक है कह कर चल पड़े... रास्ते में शर्मा ने बताया कि कल रात उत्तम कुमार साहब गुजर गये। मन दुःखी हो गया। अब तो ऑफिस से जल्दी आना होगा। शर्मा ने कहा-आज क्या, कल-परसों चलेंगे... दास बाबू ने कहा-आज ही जाना होगा। दास बाबू याद करने लगे कैसा हंसता-खिलखिलाता व्यक्तित्व था उत्तम कुमार जी का। बेटे तो बड़े-बड़े हैं, सभी कमाते भी है। पत्नी तो अभी कुछ वर्षों पहले ही चल बसी थी।
सोचते-सोचते ऑफिस तक पहुंचे। लंच तक काम किया और ऑफिस में परमिशन लेकर रिक्शा कर उत्तम कुमार के घर पहुंचे। काफी लोग थे वहां, उनके बेटों से मिले... अपनी अंतरात्मा से संतोष महसूस किया, अच्छा हुआ अभी ही आ गया।
सामने वकील के साथ बैठ कर दोनों बेटे हिसाब कर रहे थे पिताजी के पैसों का। उन्होंने सुना, बड़ा बेटा कह रहा था कुछ दिनों पहले ही पिताजी ने 40 लाख रुपये निकाले हैं, 5 लाख तो उन्होंने कल ही दूसरे अकाउंट में डाले हैं पर पैंतीस लाख उन्होंने किस खाते में डाले हैं पता ही नहीं चल रहा। उन्होंने किसी को कुछ बताया भी नहीं।
दास बाबू के कान खड़े हो गये... उन्हें याद आई उस दिन की बात- तब उत्तम कुमार जी पार्क में बैठ कर कुछ काम कर रहे थे, दासबाबू भी उनकी बगल में बैठ गये। उत्तम कुमार जी को काम करता देख दास बाबू भी चुपचाप उनके पास बैठे रहे...। उत्तम कुमार जी ने पूछा था- दास बाबू आपका घर अपना है या किराये का? दास बाबू उसी दिन किराया चुका कर आये थे, उन्होंने उदासी से कहा- किराये का है भाई...। मेरा अपना घर तो राम जाने कब होगा, मैं तो इसी को अपना समझ कर रह रहा हूं... और दोनों हंसे...। सब काम पूरा होने पर उन्होंने पूछा था -कितने का होगा यह घर? दास बाबू ने बेरुखी से कहा था- मेरी जब उसे खरीदने की औकात ही नहीं हैं तो मैं क्यों जानूं कितने का है ...फिर भी,कुछ तो कीमत होगी उसकी ...और दास बाबू ने दार्शनिक अंदाज से कहा-होगी यही कोई पैंतीस-चालीस लाख... जो रकम उन्होंने कभी पास-पड़ोस के लोगों से सुनी थी।
सच में कीमत बताते ही उत्तम बाबू के सवाल समाप्त हो गये और दास बाबू को राहत मिली। दोनों टहलने लगे। दास बाबू की बातों में कोई बेचारगी तो नहीं थी पर उत्तम बाबू उनकी ईमानदारी-उनके चरित्र को ठीक से पहचानते थे। मकान के लिये लोन लेने की बात पर दास बाबू ने दृढ़ता से कहा था - जो बात उनके बस के बाहर है उसे सोच कर दुखी होना उसने नहीं सीखा। माता-पिता को अपने साथ रखना चाहते थे|
दास बाबू ने इतना तो कहा था- कौन किसी का होता है। आजकल तो लोग मिलने से भी कतराते हैं। वैसे भी मेरा तो सिद्धांत है कोई व्यक्ति आपके पास तीन कारणों से आता है। भाव से, अभाव में और प्रभाव में। जो भाव से आये उसे प्रेम करो, जो अभाव में आये उसे मदद करो और जो प्रभाव में आये तो प्रसन्न हो जाओ कि ईश्वर ने आपको इस योग्य बनाया है।
उस दिन खूब टहले थे दोनों। न जाने दास बाबू ने अपने जीवन के कौन से पन्ने उनके सामने खोले कि उत्तम कुमार जी ने उन्हे गले लगाया जैसे शाबाशी दे रहे हों। दोनों ने अपनी-अपनी राह पकड़ी। उस दिन दास बाबू पासबुक के आंकड़ों में खोये रहे और आज उत्तम कुमारजी की अंतिम विदाई...।
पत्नी के जाने के बाद हाल खराब ही थे। देखभाल भी नहीं करते थे उनके बेटे...। दूसरे दिन ऑफिस जाते समय दास बाबू उत्तम कुमार जी के घर गये, उनके बेटों से बात की। बातों-बातों में पता चला उत्तम कुमार जी ने पैंतीस लाख रुपये दान कर दिये जिसका आक्रोश दोनों पुत्र व्यक्त कर रहे थे- बड़ी कोठी, शेयर, पैसा, गहना सब कुछ देने के बाद भी वो पैंतीस लाख रुपये उन्हें अखर रहे थे।
कुछ दिन और निकले और एक दिन दासबाबू ने अपनी पत्नी को उन पैसों के बारे में सब कुछ बता दिया ...चेहरा ऐसा हो गया जैसे दास बाबू ने चोरी कर ली हो। उत्तम कुमार जी के परिवार की बात को इससे जोड़कर देखते हुए पत्नी ने कहा कि उन्होंने आपसे आपके खाते के नम्बर मांगे थे क्या...। दास बाबू ने याद करते हुए कहा- नहीं... पर उन्हें याद आया उस दिन पार्क में लिखने के लिये कुछ मांगते समय उन्होंने अपनी छोटी डायरी उन्हें दी थी, उसमें उनके बैंक और खाता नम्बर लिखा हुआ था, शायद यहीं से मिला हो..। पत्नी का चेहरा दिन भर खुश होने के बदले उदास रहा...।
सोमवार को डाक से दास बाबू के घर एक पत्र आया। शाम को ऑफिस से आने के बाद चाय के कप के साथ पत्र को देख दास बाबू ने खोला... छोटा पर सुन्दर अक्षरों में लिखा पत्र, दास बाबू... हम मित्र नहीं हैं पर आशा करता हूं आज के बाद हम अच्छे मित्र होंगे। आपके खाते में जो रकम जमा हुई है बिना किसी चर्चा के अपना मकान खरीद लो। माता-पिता को ले आओ। इसके साथ, हमारे समाज ने दान स्वरूप यह राशि आपको दी है इसका विवरण है जो आयकर विभाग में प्रस्तुत करने में उपयोगी होगा। क्षमा प्रार्थी हूं...
दास बाबू ने होले से पत्र पत्नी के हाथ में दिया और सोचने लगे क्यों...। अब उन्हें क्या करना चाहिए... क्या वह इतनी बड़ी रकम के योग्य हैं, उन्हें यह दान स्वीकार करना चाहिए या नहीं...। दास बाबू ने अपनी डायरी के पन्ने पर लिखा ‘हरि ऊं’ और आज की तारीख डाल कर डायरी बंद कर दी।
सब से अधिक पढ़ी गई खबरें
ज़रूर पढ़ें