धर्मपाल महेंद्र जैन
हिंदी पढ़ते हुए आपने वीर गाथा काल, भक्ति काल आदि पढ़े होंगे। अब हिंदी में एक नया काल जुड़ गया, कोरोना गाथा काल। यह काल लगभग सालभर का रहा, पर लबालब साहित्य भर गया। विश्व की सभी जीवित और मृत भाषाओं में कोरोना गाथा काल में घमासान लिखा गया। पिछले सौ सालों के बराबर साहित्य इसी एक साल में ही घिस दिया गया।
कोरोना गाथा काल के वेबीनारों और व्हाट्सएप समूहों में जहां जगह दिखी, कवि घुस गए। जो कोरोना वायरस पर एक महाकाव्य या दस खंडकाव्य लिख गया, वही टिक पाया। इनमें प्याज के छिलकों जैसे बिंब भरे हैं, प्याज छिलके-छिलके हो जाएगा पर अंत तक बिंब नहीं मिलेंगे। तबलीगी जैसे गैर-जिम्मेदारी के चरित्र हैं। इन ‘वायरस चरित्तम’ महाकाव्यों का महानायक रावण से सैकड़ों गुना काइयां रहा। लाखों महाकवियों ने घर बैठे अशास्त्रीय तत्वों से भरपूर ऐसे महाकाव्यों की रचना की है। ये अतौलनीय हैं, कई टन वजन है इनका। इस काम की तुलना में छोटी-बड़ी करोड़ों कविताओं का महत्व उस कचरे के ढेर जैसा है जहां टन भर छांटो तो ग्राम भर कविता निकले।
व्यंग्य लेखन में आशातीत उछाल आया। राजनीति में जिन्हें निर्दलीय खड़े होने के टिकट नहीं मिल सके, वैसे लोग व्यंग्यकार हो गए। दशकों से व्याप्त विद्रूपताएं यकायक बासी हो गईं। धृतराष्ट्र के अंधत्व की बात करना पाप हो गया। इस काल में हजारों टन व्यंग्य रचा गया। एक विषय पॉजिटिव मिला तो बीस विषयों को पॉजिटिव बना गया। जो साहित्यकार कोरोना विजयी हो कर लौटे उन्होंने यथार्थ लिखा पर उनसे अधिक करुणामयी व्यंग्य तमाशबीनों ने रचा। साहित्य की इन दो भयंकर विधाओं के सामने अन्य विधाओं की औकात नहीं बचती पर इस भ्रम को लघुकथाकारों ने तोड़ दिया। जिनमें कथा नहीं थी, वैसी अकथाएं लघु होकर धड़ल्ले से चस्पा हुईं और कोरोना की तरह वायरल हो गईं। साहित्यकारों ने इतनी तेजी से लिखा कि वे खुद का लिखा ही नहीं पढ़ पाए, फिर पराए बुद्धिजीवी क्या पढ़ते!
कोरोना गाथा काल फटाफट साहित्य का काल रहा। हाथों की सभी उंगलियां टाइप करने में दक्ष हो गईं। कुछ योगियों ने पैरों की उंगलियों को भी कीबोर्ड पारंगत बना दिया। पूर्व कालों में जो जीभ केवल उच्चारण करती थी, अब बोल कर कम्प्यूटर पर टंकित और अनूदित कराने लग गई। टेक्नालॉजी का विकास हुआ तो रचनाकार के चिंतन-मनन का विनाश। वेबीनारों में मौखिक साहित्य इतना मुखर हुआ कि हर साहित्यकार ग्रंथावली बन गया।
फसल बंपर आई तो खरपतवार और ज्यादा उगे, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लेवाल नहीं मिले। पचास प्रतियों का संस्करण छापने वाले प्रतिष्ठान दस-दस प्रतियां छाप कर उत्पादन बढ़ाते रहे। कहानियां, उपन्यास, नाटक आदि अधिक समय खाने वाली विधाएं यह मंजर भांप पातीं, इतनी देर में चीनी गुणवत्ता का कई गुना माल साहित्य में पसर जाता। कोरोना गाथा काल नयी दुनिया और नये साहित्य के उद्भव का प्रारंभिक काल है। वैक्सीन आ गई है। साहित्य के कोरोना गाथा काल का क्या होगा भविष्य, आगे-आगे देखिए होता है क्या!